अनुभव, समझ, वचनबद्धता जरूरी
दयासागर
भारतीय नेताओं को अंग्रेजों की अच्छाइयों का अनुसरण करने की सलाह दे रहे हैं दयासागर अनुभव, समझ, वचनबद्धता जरूरी भारत के एक वरिष्ठ पत्रकार का स्तंभ 16 से 20 अक्टूबर के बीच देश-विदेश के विभिन्न समाचार पत्रों में छपा। इसमें जम्मू-कश्मीर के मामलों पर विस्तृत चर्चा हुई। चूंकि स्तंभकार इंगलैंड में भारत के उच्चायुक्तव राज्यसभा के पूर्व सदस्य रह चुके हैं, इसलिए मुझे स्तंभ के बारे में बिना किसी पूर्वाग्रह के चर्चा करने की जरूरत महसूस हुई। उन जैसे वरिष्ठ पत्रकार के लेख तथा विचार कई मायने रखते हैं। ऐसे वरिष्ठ की लेखनी से निकलने वाले शब्दों व विचारों को हमें ध्यान में रखना चाहिए। खासकर जम्मू व कश्मीर के निर्दोष व भोले-भाले लोगों को। वरिष्ठ पत्रकार ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री द्वारा राज्य विधानसभा में विगत 6 अक्टूबर को दिए गए बयान पर टिप्पणी करते हुए सुझाव दिया कि राजनीतिज्ञों के लिए समय बेहद अहम मायने रखता है। उन्हें गंभीरता से समझना चाहिए कि कब बोलें और कब चुप रहें। अगर वह नहीं जानते कि कब क्या कहा जाए तो उन पर मुसीबत आ सकती है। नि:संदेह इससे सब सहमत होंगे। लेकिन उन्होंने जो सुझाव दिया उसमें मैं कुछ और बात जोड़ना चाहता हूं। पत्रकारों व स्तंभकारों के लिए भी समय उतना ही मायने रखता है। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि कब क्या लिखा जाए और क्या न लिखा जाए। अगर वे नहीं जानते कि कब क्या लिखा जाए तो वह देश, समाज या आम आदमी को संकट में डाल सकते हैं। उनका थोड़ा लिखा लोगों के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। स्तंभकार ने अपने लेख में कहा कि उमर अब्दुल्ला ने विधानसभा में गलत समय पर भड़ास निकाली। उनका बयान कि राज्य का 1948 में अर्द्धविलय किया गया न कि विलय, इतिहास और तथ्यों की दृष्टि से सही है। उनके दादा शेख अब्दुल्ला, जो उस समय राज्य के प्रधानमंत्री थे, इस शर्त पर संघ में शामिल हुए कि नई दिल्ली के पास केवल तीन विषय होंगे- रक्षा, विदेशी मामले व संचार। शेष मामले राज्य के अधीन रहेंगे। नई दिल्ली ने इस शर्त को स्वीकार किया। स्तंभकार ने इस विषय में जो कुछ लिखा है उसे मैं विवाद का मुद्दा नहीं बनाना चाहता लेकिन निश्चित रूप से मुझे अधिकार है कि उनके द्वारा दिए गए कुछ तथ्यों पर चर्चा करूं। कारण कि उन्हें अगर छोड़ दिया जाए तो वे जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकते हैं। स्तंभकार के अनुसार 1948 में जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ। जबकि तथ्य यह है कि विलय 1947 में हुआ। उस समय शेख अब्दुल्ला नहीं बल्कि मेहर चंद महाजन महाराजा हरी सिंह के प्रधानमंत्री थे। यह महाराजा हरी सिंह ही थे जिन्हें विलय करना था न कि प्रधानमंत्री या शेख अब्दुल्ला को। इन वर्षो में जम्मू-कश्मीर मामलों पर कई बार गलत रिपोर्टिग होती रही जिससे राज्य में शांति पर गंभीर खतरे मंडराते रहे और भारत के हितों को नुकसान पहुंचा। यह भी एक तथ्य है कि आम आदमी इतना विशलेषणात्मक नहीं होता कि वह अखबारों में छिपी भावना की समीक्षा कर सके। इसलिए मीडिया को खबरें छापने में सावधानी बरतनी पड़ती है। कुछ ऐसा ही 18 अक्टूबर को वेलिंगटन में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिंदबरम द्वारा दिए गए बयान पर छपी खबरों में हुआ जिसमें उन्होंने कहा था कि उमर अब्दुल्ला ने राज्य विधानसभा में जो बयान दिया, आडवाणी को उसके बारे में गहनता से संपूर्ण पाठ पढ़ना चाहिए। तभी उन्हें सही संदर्भ मालूम होंगे जिसमें अब्दुल्ला ने इस तरह की टिप्पणी की। विदेश मंत्री एसएम कृष्णा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ जब 1947 में कश्मीर विलय के संबंध में उमर के बयान पर उनकी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की गई। कृष्णा ने 15 अक्टूबर को दिल्ली में कहा कि वे नहीं समझते कि अब्दुल्ला ने ऐसी कोई आपत्तिजनक बात कही। कृष्णा और चिदंबरम ने जो कुछ कहा, उसे सही ठहरानेमें वे सक्षम हैं। लेकिन उनकी टिप्पणियों पर मीडिया की कवरेज ने लोगों के मन में संदेह भर दिया। ऐसे कई और उदाहरण हैं। विगत वर्षो में जेएंडके मामले पर बहुत से विचार-विमर्श व अध्ययन किए गए। लेकिन प्राय: सभी का बिना किसी समाधान के समापन हो गया और इससे ज्यादा शंकाएं पैदा हुई। केंद्र-राज्य संबंधों पर जस्टिस सगीर अहमद कार्यदल की रिपोर्ट इसका सबसे बढि़या उदाहरण है। तीन वर्षो तक सरकारी धन खर्च करने के बाद रिपोर्ट के सैकड़ों पन्नों में ऐसी बातों का जिक्र है जो उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता जबकि प्रधानमंत्री द्वारा अध्ययन के लिए दिए गए मुख्य मुद्दों के किसी समाधान की चर्चा नहीं है। वार्ताकारों की नियुक्ति प्रक्रिया भी इसका एक उदाहरण है। यह केसी पंत थे (मैं उनसे 1 जून 2002 को जम्मू में मिला) जिन्होंने अपना काम बीच में ही छोड़ दिया। वह अरुण जेटली थे (एलके आडवाणी ने 16 जुलाई 2002 को लोकसभा में घोषणा की, अधिसूचना 22 जुलाई 2002 को जारी) जिन्होंने केंद्र के मुख्य व्यक्ति के रूप में अपना काम शुरू किया। यह एनएन वोहरा थे (मैं उनसे 13 जून 2003 को जम्मू में मिला) जिनकी थिसीस कभी प्रकाश में नहीं आई। अब गृह मंत्रालय ने 13 अक्टूबर 2010 को तीन नए वार्ताकारों(दिलीप पडगांवकर, केंद्रीय सूचना आयुक्त एमएम अंसारी और प्रो.राधा कुमार) की नियुक्तिकी है। यूपीए सरकार को अभी समूह का अध्यक्ष नियुक्तकरना है। प्रधानमंत्री व गृहमंत्री का कहना है कि समाज के सभी क्षेत्रों से जुड़े लोगों से बातचीत शुरू की जाएगी। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वार्ताकार केवल अलगाववादियों और कश्मीर विलय पर सवाल उठाने वालों से ही रू-ब-रू होंगे। कितनी हैरानी की बात है कि अपने ही देश में कूटनीति का सहारा लिया जाता है। कितना हास्यास्पद है कि राज्य में दो-तिहाई जनता को कभी नहीं पूछा जाता। भारतीय नेताओं ने अंग्रेजों से गलत उपदेश लिया कि बांटो और राज करो। लगभग सभी राजनीतिक दल भारतीय मतदाताओं को धर्म और जाति के नाम पर बांटने में व्यस्त रहे लेकिन उन्होंने शिखर पर पहुंचने के लिए अंगे्रजों से सीख लेने का कोई प्रयास नहीं किया। यहां तक कि कालोनियों के प्रबंधन के लिए ब्रिटेन ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का प्रयोग किया। भारत सरकार अधिनियम 1858 को ब्रिटिश संसद द्वारा 2 अगस्त 1858 को पारित किया गया जिसके तहत कंपनी राज की कालोनियों का नियंत्रण ब्रिटिश क्राउन को दिया जाना था। अधिनियम के तहत भारत के लिए राज्य सचिव को भी नियुक्तकरना था। अधिनियम के प्रावधानों के तहत महारानी के प्रमुख राज्य सचिव ने कंपनी निदेशक मंडल के अधिकारों व कर्तव्यों को ग्रहण किया। उनकी सहायता के लिए पंद्रह सदस्यों की एक परिषद बनाई गई। भारत और ब्रिटेन के बीच सभी प्रकार के संचार के लिए राज्य सचिव को माध्यम बनाया गया। क्राउन को अधिकार था कि वह भारत के गवर्नर जनरल और प्रेजीडेंसिज के गवर्नर नियुक्तकरे। सलाहकार परिषद के सदस्यों के चयन व नियुक्तिके मामले में अधिनियम के तहत वही व्यक्तिशामिल हो सकता था जिसने भारत में कम से कम 10 साल तक सेवाएं दी हों और अगले दस साल तक देश न छोड़े। दूसरी तरफ जेएंडके के मामले में अनुभव बताता है कि जम्मू व कश्मीर के लोगों के घावों पर मरहम ही लगाया जाता रहा है न कि समस्या के समाधान के लिए ब्रिटेन का अनुकरण किया गया। इसी तरह एक इंटरव्यू में कहा गया कि पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के पास ऐसा समाधान है जिसे पाकिस्तान व भारत दोनों ने स्वीकार्य पाया है। फार्मूले का खुलासा किए बगैर स्तंभकार ने कहा कि नई दिल्ली को इसे अपनाना चाहिए। दूसरी तरफ पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ द्वारा कश्मीर मामले पर सुलह-समझौते कब तक जारी रहेंगे, उसे इस तथ्य से ही देखा जा सकता है कि मौजूदा पाकिस्तान सरकार उनके विरुद्ध आपराधिक व षड्यंत्र रचने के तहत कार्रवाई शुरू कर सकती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी पूर्व पाक राष्ट्रपति के बयान पर चुप्पी साध रखी है। इससे जेएंडके के लोगों को मानसिक अवसाद से ग्रस्त होना पड़ता है। पिछले कई सालों से दिल्ली के सलाहकारों व पिछले दरवाजे के कश्मीर मामलों के विशेषज्ञों ने स्थानीय लोगों के मन में केवल भ्रम ही पैदा किया है। अनुभवी लोगों, स्थानीय जानकारी और प्रतिबद्धता से ही समस्या सुलझाई जा सकती है। (लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता हैं) धंुध के उस
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