सरकार के अहंकारी पैरोकार
अन्ना हजारे को फंसाने के प्रयास में संप्रग सरकार को खुद फंसते देख रहे हैं प्रदीप सिंह
जाको विधि दारुण दुख दीन्हा, ताकी मति पहिले हर लीन्हा। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार और कांग्रेस की हालत कुछ ऐसी ही है। वह एक के बाद दूसरी गलती करती जा रही है। संकट आते ही सरकार का मुखिया अदृश्य हो जाता है। कांग्रेस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अंत:पुर में चला जाता है। फिर सरकार अपनी गलती को सुधारने के लिए एक कदम उठाती है और कहा जाता है कि यह सोनिया जी या राहुल जी के कहने पर हुआ है। उससे पहले गांधी परिवार क्या कर रहा था या क्या कह रहा था किसी को पता नहीं चलता। देश की जनता के सामने दो कानूनविद मंत्री सरकार का पक्ष लेकर आते हैं। उनकी भाषा और भावभंगिमा ऐसी होती है कि वे इस देश में शासन करने के लिए ही पैदा हुए हैं और देश के संविधान और कानून की जानकारी सिर्फ उन्हें ही है। उनके मुताबिक सरकार का विरोध कैसे और कितने समय तक होगा इसका फैसला सरकार करेगी, विरोध करने वाले नहीं। सरकार और कांग्रेस को लगा कि जैसे रामदेव पर हमला करके उन्हें चुप करा दिया अन्ना के साथ भी वैसा ही किया जा सकता है। उन्हें पता नहीं था कि अन्ना हजारे की टीम सरकार से एक कदम आगे की सोचकर चल रही है। दिल्ली पुलिस ने जब अनशन की इजाजत देने के लिए शर्ते थोपनी शुरू कीं तो अन्ना के लोग समझ गए थे कि सरकार उन्हें अनशन की इजाजत नहीं देगी। इसलिए वे अन्ना की गिरफ्तारी के लिए तैयार थे। गिरफ्तारी से पहले अन्ना का संदेश रिकॉर्ड कर लिया गया था। सरकार को लगा कि उसने मैदान मार लिया। उसके मंत्री जीत की मुद्रा में मीडिया के सामने आए और कहा कि क्या करें अन्ना के लोग कानून और संविधान को समझते ही नहीं। मजबूरी में हमें उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा। उसके बाद घटनाक्रम तेजी से घूमा। सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी। अन्ना और उनकी टीम ने निजी मुचलके पर छूटने से मना कर दिया। सरकार तब भी नहीं समझी कि इसका क्या असर होगा और उनको जेल भेज दिया गया। कुछ ही घंटों में पूरे देश से अन्ना के समर्थन में लोग सड़कों पर उतर आए। सरकार के हाथ-पांव फूल गए। आनन-फानन में तय हुआ कि अन्ना और उनके साथियों को तिहाड़ से तुरंत रिहा किया जाए। लेकिन सरकार ने अपनी गलती मानने की बजाय कहा कि हमें जानकारी मिली कि अन्ना और उनके साथी अदालत का दरवाजा खटखटाने जा रहे हैं इसलिए हमें लगा कि वे कानून को मानेंगे। पर सरकार फिर गच्चा खा गई। अन्ना हजारे ने तिहाड़ जेल से बाहर आने से मना कर दिया। कहा कि जब-तक बिना शर्त अनशन की इजाजत नहीं मिलती बाहर नहीं आएंगे। यह देश के एक साधारण व्यक्ति की नैतिक शक्ति का असर है कि पूरी भारत सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रही है। अन्ना को फंसाते-फंसाते सरकार खुद फंस गई है। सरकार की ताकत के खिलाफ नैतिकता और ईमानदारी की ताकत खड़ी है। इसी नैतिकता और ईमानदारी के कारण लाखों लोग अन्ना के साथ हैं। अन्ना हजारे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में एक समानता है और एक फर्क भी। दोनों के पास नैतिकता और ईमानदारी की ताकत थी। अन्ना ने अपनी ताकत का इस्तेमाल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने में किया और मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचारियों को बचाने में। ऐसा देश के लोगों को लग रहा है। इसीलिए लोगों को प्रधानमंत्री की बजाय अन्ना की बात ज्यादा भरोसे लायक लग रही है। अन्ना का हाथ आम जनता की नब्ज पर है और जिस आम आदमी के नाम पर मनमोहन सिंह की सरकार सत्ता में आई उसका हाथ सरकार के गिरेबान तक पहुंच रहा है। मनमोहन सिंह की सरकार और कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व राजनीतिक मुद्दे को कानून के जरिए हल करने की कोशिश कर रहा है। सरकार को समझ में ही नहीं आ रहा है कि जो लोग अन्ना के साथ आ रहे हैं वे किसी पार्टी के कार्यकर्ता नहीं हैं। यह देश की युवा पीढ़ी है। ये लोग उस वर्ग के हैं जिन्हें आर्थिक उदारीकरण का लाभ मिला है। उन्हें लग रहा है कि 74 साल का एक बूढ़ा हमारे भविष्य के लिए लड़ रहा है। यह वर्ग राजनीतिक भ्रष्टाचार से छुटकारा चाहता है। अभी महंगाई, गरीबी, अभाव, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की मार से ज्यादा प्रभावित लोग तो सड़क पर उतरे ही नहीं हैं। मनमोहन सिंह और उनकी सरकार समस्या को समझने को तैयार ही नहीं है। संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री के बयान से तो यही लगता है। उन्होंने इस पूरे मुद्दे को नागर समाज बनाम संसद की संप्रभुता की लड़ाई बनाने की नाकाम कोशिश की। पिछले दो दिनों में केंद्र सरकार ने जो कुछ किया है उसने संसद में विपक्ष को एकजुट कर दिया है। साथ ही अन्ना हजारे की ताकत और समर्थकों की संख्या बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम को अब राजनीतिक सत्ता की ताकत से रोका नहीं जा सकता। लोगों को इस मुहिम के लिए एक ईमानदार नेतृत्व की जरूरत थी। जो अन्ना हजारे के रूप में मिल गया है। कांग्रेस के पास दो हथियार थे। मनमोहन सिंह की ईमानदारी की नैतिक ताकत और राहुल गांधी का युवा नेतृत्व। अन्ना ने मनमोहन सिंह की नैतिक ताकत को भोथरा कर दिया है। परिवर्तन और युवाओं की बात करने वाले राहुल गांधी संसद और संसद के बाहर चल रहे किसी विमर्श में नजर नहीं आ रहे। कहते हैं सोना तप कर कुंदन बनता है। पर राहुल गांधी इस राजनीतिक आग में तपने को तैयार नहीं लगते। मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी मूल बात समझने को तैयार नहीं है। इस राजनीतिक संकट से उबरने का एक ही तरीका है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई। जनता अब सड़क पर आ गई है। जनता जब सड़क पर आती है तो संसद को सुनना पड़ता है। संसद को एक प्रभावी लोकपाल कानून बनाना चाहिए। लोगों को यह भरोसा होना चाहिए हमारे जन प्रतिनिधि भ्रष्टाचार से सचमुच लड़ना चाहते हैं। जबानी जमाखर्च के दिन लद गए हैं। सत्ता में होने के कारण कांग्रेस ज्यादा मुश्किल में है। इसलिए बाकी राजनीतिक दलों को यह गलतफहमी नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस और केंद्र सरकार से नाराज लोग उन्हें गले लगाने के लिए तैयार बैठे हैं। कांग्रेस इसी डर से लगातार गलतियां कर रही है कि इस आंदोलन का चुनावी फायदा भाजपा को न मिलने पाए। भाजपा को फायदा मिलेगा या नहीं यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा पर कांग्रेस का नुकसान साफ दिखाई दे रहा है। सरकार दूसरे के माथे का सिंदूर देखकर अपना माथा फोड़ने का काम कर रही है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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