कानपुर (विसंके). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, कानपुर प्रान्त द्वारा रेलवे मैदान निराला नगर में आयोजित राष्ट्र रक्षा संगम संघ को सम्बोधित करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पू. मोहन भागवत जी ने कहा कि संघ के विशाल कार्यक्रमों को लोग शक्ति प्रदर्शन का नाम देते हैं, पर जिसके पास शक्ति होती है, उसे उसके प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं पड़ती है. संघ के पास अपनी शक्ति है, जिसके द्वारा संघ आगे बढ़ रहा है. ऐसे कार्यक्रमों का उद्देश्य शक्ति प्रदर्शन नहीं आत्म दर्शन होता है. ऐसे कार्यक्रमों का उद्देश्य अनुशासन एवं आत्म संयम होता है. जैसाकि हम जानते हैं कि हम और हमारे देश का भाग्य, हमें ही बनाना पड़ेगा. कोई दूसरा हमारा भाग्य नहीं बनाएगा.
डॉ साहब (संघ संस्थापक) को जैसा लोग जानते हैं, उसके अनुसार वे जन्मजात देशभक्त थे. बचपन से ही उनमें स्वतंत्रता की ललक व उसके सुख आदि के विचार उनके मन में चलते रहते थे. यही कारण है कि बड़े होकर पढ़ाई पूर्ण करने के बाद उन्होंने यह नहीं सोंचा कि अपनी ग्रहस्थी बनाऊ या कमाई करुं. बल्कि यह विचार किया कि जब तक देश का भाग्य नहीं बदलता है, तब तक अपने जीवन के बारे
में कोई विचार नहीं करना. यही कारण है कि देशहित के हर काम में वे सहभागी रहे. उस समय का मुख्य कार्य देश को स्वतंत्र कराने का था. स्वतंत्रता के लिये सशस्त्र संघर्ष करने वालों को क्रांतिकारी कहते थे और कुछ लोग अहिंसा के रास्ते देश को स्वतंत्र कराने के पक्षधर थे. कुछ लोग समाज सुधार के कार्य के द्वारा भी देशहित में लगे थे. इन सभी प्रकार के कार्यों में डॉ साहब ने कार्यकर्ता बनकर सहयोग किया. उनका इस प्रकार के सभी कार्यों के कार्यकर्ताओं से उनका व्यक्तिगत विचार विमर्श चलता रहता था. हमारा देश दुनिया में कभी भी पीछे नहीं था. हम बलवान, प्रतिभावान थे. किन्तु मुट्ठीभर लोगों ने हमें पदाक्रांत किया. संविधान निर्माता डॉ अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा था कि हमारे स्वार्थों, भेदों, दुर्गुणों के चलते हमने अपने देश को चांदी की तश्तरी में देश भेंट कर दिया.
सरसंघचालक जी ने कहाकि जब तक स्वार्थों से ऊपर उठकर हम बंधु भाव से समाज नहीं बनाते, तब तक संविधान हमारी रक्षा नहीं कर सकता. सम्पूर्ण समाज एक करना, गुण सम्पन्न, संगठित समाज देश के भाग्य परिवर्तन की मूलभूत आवश्यकता है.
निराशामयी विकल्प है. परिस्थिति को पार करने के लिये जो करना चाहिये, वो पहले खुद करो, फिर दूसरे को सिखाओं. अंधेरे से लड़ने की जरुरत नहीं, एक दीप जलाओ अंधेरा भाग जाएगा. परिस्थिति से निपटने के लिये उसमें से होकर गुजरना होगा. एक केरल का राजा था उदयरन उसे आचार्य परशसुराम के गुरुकुल में भेजा. पढ़ाई पूर्ण होने के बाद परीक्षा का समय आया. 12 वर्ष बाद आचार्यों ने पूछा कि कितना सीखा. उसने कहा कि मैं 10 हजार लोगों से अकेला लड़ सकता हूं. गुरू ने दोबारा परीक्षा के लिये छह माह बाद आने को कहा, विचार करने पर उसके ध्यान में आया कि दस हजार लोग मुझसे एक साथ नहीं लड़ सकते, एक साथ अंदर के घेरे में रहने वाले 27 लोगों के अलावा और किसी से लड़ाई नहीं कर सकता. छह महीने बाद जब पूछा तो उसने बताया कि 27 लोगों से लड़ सकता हूं. आचार्यों ने फिर उसे भेज दिया. आचार्यों ने छह माह बाद दोबारा परीक्षा ली, पूछा तो उसने कहा कि एक से बहुत अच्छी तरह लड़ सकता हूं. फिर उससे पूछा, तो अबकी बार उसने कहा कि हम शस्त्र विद्या लड़ाई के लिये नहीं, बल्की आत्मरक्षा के लिये सीखते हैं. मैं खुद किसी से नहीं लड़ सकता हूं, यदि कोई मुझे या प्रजा को सताने के लिये आये, तो जितना लड़ना पड़े मैं लड़ सकता हूं. संघ में भी हमें यही सिखाया जाता है. हमें अपने अंदर को ठीक करना सबसे जरुरी है. अंदर शक्ति सम्पन्न हो जाओ, कोई आपको सताने का प्रयास नहीं करेगा. एक आदमी था, उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई. उसको नींद नहीं आ रही थी, सब प्रकार की दवाईयां ली, ठीक नहीं हुआ. महात्मा जी ने एक पोटली दी और कहा कि खोलना नहीं. उसने वैसा ही किया, लेकिन पत्नी का भूत पोटली के अंदर की बात पूछते ही भूत गायब हो गया. महात्मा ने बताया कि भूत तुम्हारे मन का वहम था. वह अब भाग चुका है. संघ का काम इसलिए चलता है कि समाज को देश के लिये जीने मरने वाला बनाए.
No comments:
Post a Comment