Monday, January 09, 2012
भारतीय संस्कृति विश्व में सर्वोत्कृष्ट-शंकराचार्य
पुरी, vsk
सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति दार्शनिक, वैज्ञानिक, व्यवहारिक विचारधारा के ऊपर प्रतिष्ठित है। भारतीय संस्कृति विश्व में सर्वोत्कृष्ट है, लेकिन विडंबना की बात है कि भारत में पिछले कई सालों से दिशाहीन शासन तंत्र स्थापित हुआ है। इस बात को लेकर सुसंस्कृति सुरक्षित और सु-व्यवस्थित समाज की रचना जरूरी है। पुरी गोबर्द्धनपीठ शंकराचार्य मठ की तरफ से तीर्थराज महोदधि आरती के पंचम वार्षिक उत्सव अवसर पर गोबर्द्धनपीठ के जगतगुरू शंकराचार्य प्रभुपाद निष्चलानंद सरस्वती ने उपरोक्त बातें कही है। आध्यात्मिक परिवेश में मठ के तरफ से महोदधि आरती के पंचम वार्षिक उत्सव समुद्र तट पर अनुष्ठित हुआ है। इस उत्सव में जगत गुरू शंकराचार्य स्वामी निष्चलानंद सरस्वती ने अध्यक्षता किया जबकि पुरी के गजपति महाराज दिव्य सिंहदेव मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। स्वामी कैवल्या नंद जी, झमन शास्त्री जी, इंदिरा झा, सीमा तिवारी, नेपाल के राजगुरू के प्रतिनिधि, थाईलैण्ड के राजगुरू के प्रतिनिधि तथा पुरी के कई मठाधीश व धर्माचार्य इस कार्यक्रम में उपस्थित थे। पीठ परिषद के अनुकूल्य में आयोजित महोदधि आरती के इस उत्सव में आशीर्वचन प्रदान पूर्वक निश्चलानंद ने कहा कि भारत के प्राचीन सनातन धर्म संस्कृति परिव्यापक है। इसकी सुरक्षा पर गुरूजी ने महत्व दिया था। स्वामी जी ने कहा कि महोदधि का जल विभिन्न शक्ति और विभिन्न प्रजाति के प्राणियों का भण्डार है। समुद्र के सुरक्षा द्वारा प्रकृति सुरक्षा सम्भव है। गजपति महाराज दिव्य सिंहदेव ने इस मौके पर कहा कि भारत के भावना आध्यात्मिक भावधारा पर प्रतिष्ठित है। भारत साधु संतों का देश है। भारतीय मुनि ऋषियों ने पूरे मानव समाज के कल्याण के लिए दिशा दिखाई है। लेकिन हम लोग वेद ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान से दूर हटकर वस्तु विज्ञान के प्रति अधिक आकर्षित हो रहे हैं। पीठ परिषद के अध्यक्ष डा.अमीय कुमार महापात्र, सचिव इंजीनियर प्रशान्त कुमार आचार्य, आदित्य वाहिनी राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र महापात्र, मुक्ति मण्डप पंडित सभा के संपादक भगवान महापात्र प्रमुख इस अवसर पर अपने विचार रखे थे। सुबल चरण दास जी महाराज अतिथि परिचय प्रदान किए थे। सभा पर्व के बाद तीर्थराज महोदधि को आरती की गई। जगतगुरू शंकराचार्य पहले महोदधि के उद्देश्य में मंत्रोच्चारण के साथ आरती किए थे। जगत गुरू के बाद गजपति महाराज ने समुद्र आरती किया।
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