पहले कांग्रेस देश का रास्ता बनाती थी जिस पर लोग चलते थे। अब देश का रास्ता बाजार बनाता है जिस पर कांग्रेस चलती है। ऐसे वक्त में किसी नई ‘कामराज योजना’ के जरिए क्या वाकई कांग्रेस में पुनर्जागरण की स्थिति आ सकती है? कामराज योजना 1962 में चीन से मिली जबर्दस्त हार के बाद नेहरू का प्रभामंडल खत्म होने के बाद आई, जब चार उपचुनावों में से तीन में कांग्रेस की पराजय हुई थी और गैर-कांग्रेसवाद का नारा बुलंद होने लगा था। 1963 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहते हुए कामराज ने सरकार और पार्टी में जिस तरह पार्टी-संगठन को महत्ता दी, उसके बाद लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद का नारा कांग्रेसियों को इस कदर अंदर से डराने लगा या कहें नेहरू का प्रभामंडल खत्म होने से कांग्रेस में ऐसा माहौल बना कि केंद्र और राज्यों में मिला कर, एक साथ तीन सौ कांग्रेसी मंत्रियों ने इस्तीफे की पेशकश कर दी।
नेहरू ने सिर्फ आधे दर्जन इस्तीफे लिए। और उनमें भी लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई और जगजीवन राम सरीखे नेता थे। जाहिर है, नेहरू दौर के बरक्स मनमोहन सिंह सरकार को देखना भारी भूल होगी। क्योंकि सरकार और पार्टी संगठन पर एक साथ असर डालने वाले नेताओ में प्रणब मुख्रर्जी के आगे कोई नाम आता नहीं। यहां तक कि मनमोहन सिंह भी पद छोड़ पार्टी-संगठन में चले जाएं तो चौबीस अकबर रोड पर उनके लिए अलग से एक कमरा निकालना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि मनमोहन सिंह का आभामंडल प्रधानमंत्री बनने के बाद बना भी और प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए खत्म भी हो चला है। लेकिन यहीं पर सवाल सोनिया गांधी की कांग्रेस का आता है। और यहीं से सवाल तब के कामराज और एके एंटनी को लेकर भी उभरता है और कांग्रेस के पटरी से उतरने की वजह भी सामने आती है।
असल में आम लोगों से जुड़े जो राजनीतिक प्रयोग आज मनमोहन सिंह की सरकार कर रही है वे प्रयोग कामराज ने साठ के दशक में तमिलनाडु में कर दिए थे। चौदह बरस तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, मिड-डे मील और गरीब बच्चों को ऊंची पढ़ाई के लिए वजीफे से लेकर गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को मुफ्त अनाज बांटने का कार्यक्रम। कांग्रेस को पटरी पर लाने की अपनी योजना के बाद कामराज तमिलनाडु की सियासत छोड़ कांग्रेस को ठीक करने दिल्ली आ गए। 1964 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने। और लालबहादुर शास्त्री के बाद बेहद सफलता से इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने का रास्ता भी बनाया। जाहिर है, अब के दौर में सोनिया गांधी ने यही काम मनमोहन सिंह को लेकर किया। वरिष्ठ और खांटी कांग्रेसियों की कतार के बावजूद मनमोहन सिंह को न सिर्फ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया बल्कि प्रधानमंत्री पद को किसी कंपनी के सीईओ की तर्ज पर बनाने का प्रयास भी किया। कांग्रेस की असल हार यहीं से शुरू होती है।
कामराज के रहते हुए इंदिरा गांधी ने 1967 में देश के विकास और कांग्रेस के चलने के लिए जो पटरी बनाई, आज मनमोहन सरकार की नीतियां उससे उलट हैं। इंदिरा गांधी ने राष्ट्र-हित की लकीर खींचते हुए जिन आर्थिक नीतियों को देश के सामने रखा उसके अक्स में अगर मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को रखें तो पहला सवाल यही खड़ा हो सकता है कि कांग्रेस के साथ उसका पारंपरिक वोट बैंक- पिछडेÞ, गरीब, आदिवासी, किसान, अल्पसंख्यक- क्यों रहे।
इस स्थिति में विधानसभा चुनावों से लेकर दिल्ली नगर निगम में हार के बाद कांग्रेस में अगर एंटनी समिति की रिपोर्ट यह कहते हुए सामने आती है कि उम्मीदवारों के गलत चयन और वोट बैंक को लुभाने के लिए आरक्षण से लेकर बटला कांड तक पर अंतर्विरोध पैदा करती लकीर सिर्फ वोट पाने के लिए खींची गई और इन सबके बीच महंगाई और भ्रष्टाचार ने कांग्रेस का बंटाधार कर दिया, तो सवाल सिर्फ कांग्रेस संगठन का नहीं है बल्कि यह भी है कि सरकार की नीतियों का बुरा असर किस हद तक आम लोगों पर पड़ा है। कांग्रेस अगर सिर्फ पार्टी-संगठन की कमजोरी को हार की वजह मानती है तो वह अपने को भुलावे में रख रही है।
सोनिया गांधी को समझना होगा कि कामराज योजना के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक पहल भी शुरू की थी और 1967 के दस सूत्री कार्यक्रम के साथ सरकार चलाना शुरू किया। कांग्रेस भी अपने पैरों पर खड़ी होती गई। इंदिरा गांधी का रास्ता सामाजिक ढांचे को बरकरार रखते हुए आम लोगों के लिए सोचने वाला था। इंदिरा गांधी ने जो लकीर खींची वह मनमोहन सरकार के दौर में कैसे खुले बाजार में बिक रही है, जरा नजारा देखें। जिस बैकिंग सेक्टर को मनमोहन सिंह खोल चुके हैं उस पर इंदिरा जी की राय थी कि बैंकिंग संस्थान सामाजिक नियंत्रण में रहें। वे आर्थिक विकास में भी मदद दें और सामाजिक जरूरतों के लिए भी धन मुहैया कराएं। जिस बीमा क्षेत्र को मनमोहन सरकार विदेशी निवेश के लिए खोल कर आम आदमी की जमा पूंजी को आवारा पूंजी बनाना चाहती है उसको लेकर इंदिरा गांधी की साफ राय थी कि बीमा कंपनियां पूरी तरह सार्वजनिक क्षेत्र में रहें। इसलिए बीमा क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण किया गया।
कॉरपोरेट को लेकर जो उड़ान मनमोहन सरकार भर रही है उसे इंदिरा गांधी ने न सिर्फ जमीन पर रखा बल्कि देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए पहले जीने का आधार जरूरी है इसके साफ संकेत अपनी नीतियों में दिए। उपभोक्ताओं के लिए जरूरी वस्तुओं
के आयात-निर्यात तय करने की जिम्मेदारी बाजार के हवाले न कर राज्यों की एंजेसियों के हवाले की। पीडीएस को लेकर राष्ट्रीय नीति बनाई। भारतीय खाद्य निगम और सहकारी एजेंसियों के जरिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली चलाने की बात कही। उस दौर में अनाज रखने के गोदामों की जरूरत पूरी करने पर जोर दिया।
अब जहां सब कुछ कॉरपोरेट और निजी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है वहीं इंदिरा गांधी ने सहकारिता के जरिए जरूरी वस्तुओं को शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बांटने की जिम्मदारी सौंपी। इंदिरा गांधी को इसका भी अहसास था कि आर्थिक ढांचे को लेकर अगर सामाजिक दबाव न बनाया गया तो निजी कंपनियां अपने आप में सत्ता बन सकती हैं। इसलिए उन्होंने एकाधिकार के खिलाफ पहल की। जबकि मनमोहन सिंह के दौर में सब कुछ पैसे वालों के लिए खोल दिया गया है। इंदिरा गांधी ने पैंतालीस बरस पहले देश की नब्ज पकड़ी और शहरी जमीन की हदबंदी की वकालत की। यानी कोई रियल एस्टेट यह न सोच ले कि वह चाहे जितनी जमीन कब्जे में ले सकता है या फिर राज्यसत्ता अपने किसी चहेते को एक सीमा से ज्यादा जमीन दे सकती है। किसी कॉरपोरेट घराने का एकाधिकार न हो इसका खास ध्यान रखते हुए भूमि सुधार कार्यक्रम का सवाल भी तब कांग्रेस में यह कहते हुए उठा कि खेती की जमीन को बिल्कुल न छेड़ा जाए, जंगल न काटे जाएं, बंजर और अनुपयोगी जमीन के उपयोग की नीति बनाई जाए।
इतना ही नहीं, कांग्रेस पैंतालीस बरस पहले सरकारी नीति के तहत कहती दिखी कि किसानों-मजदूरों के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करना जरूरी है। पशुधन के लिए नीति बनानी है और खेत की उपज किसान ही बाजार तक पहुंचाए इसके लिए सड़क समेत हर तरह के आधारभूत ढांचे को विकसित करना जरूरी है। लेकिन आर्थिक सुधार की हवा में कैसे ये न्यूनतम जरूरतें हवा-हवाई हो गर्इं यह किसी से छिपा नहीं है। अब तो आलम तो यह है कि मिड-डे मील हो या पीडीएस, आम आदमी के प्रति न्यूनतम जिम्मेदारी तक से सरकार मुंह मोड़ रही है।
इंदिरा गांधी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी पर हर किसी के अधिकार का सवाल भी उठाया। बच्चों को पोषक आहार मिले, इस पर कोई समझौता करने से इनकार कर दिया। जाहिर है, नीतियों को लेकर जब इतना अंतर कांग्रेस के भीतर आ चुका है तो यह सवाल उठाना जायज होगा कि आखिर कांग्रेस संगठन को वे कौन-से नेता चाहिए कि उसकी सेहत सुधर जाए। नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में कांग्रेस संगठन को लेकर सारी मशक्कत सरकार बनाने या चुनाव में जीतने को लेकर ही रही।
पहली बार सत्ता या सरकार के होते हुए कांग्रेस को संगठन की सुध आ पड़ी है तो इसका एक मतलब साफ है कि सरकार की लकीर या तो कांग्रेस की धारा को छोड़ चुकी है या फिर कांग्रेस के लिए प्राथमिकता 2014 में सरकार बचाना है। यह सवाल खासतौर से उन आर्थिक नीतियों के तहत है जिनमें आर्थिक सुधार के ‘पोस्टर बॉय’ क्षेत्र दूरसंचार में सरकार तय नहीं कर पाती कि कॉरपोरेट के कंधे पर सवार हुआ जाए या देश के राजस्व की कमाई की जाए। एक तरफ 122 लाइसेंस रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ सरकार कॉरपोरेट के साथ खड़ी होती है और दूसरी तरफ ट्राई पुरानी दरों की तुलना में दस गुना ज्यादा दरों पर नीलामी का एलान करता है। यही हाल खनन, कोयला, ऊर्जा, इस्पात और ग्रामीण विकास तक का है। लेकिन याद कीजिए, इन्हीं कॉरपोरेट पर इंदिरा गांधी ने कैसे लगाम लगाई थी और यह माना था कि जब जनता ने कांग्रेस को चुन कर सत्ता दी है तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जनता का हित देखे। उसके लिए उन्होंने कॉरपोरेट लॉबी के अनुपयोगी खर्च और उपभोग, दोनों पर रोक लगाई थी।
राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को सामाजिक जरूरतों के लिहाज से काम करने का निर्देश दिया था। पिछड़े क्षेत्रों में विकास के लिए राष्ट्रीय शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों से लेकर ऐसा आधारभूत ढांचा खड़ा करना था जो अपने आप में स्थानीय अर्थव्यवस्था विकसित कर सके। इतना ही नहीं, अब तो सरकारी नवरत्नों को भी बेचा जा रहा है। जबकि इंदिरा गांधी सार्वजनिक क्षेत्र को ज्यादा अधिकार देने के पक्ष में थीं, जिससे वह निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा में टिक सके।
और तो और, जिन क्षेत्रों में सहकारी संस्थाएं काम कर रही हैं उन क्षेत्रों में कॉरपोरेट न घुसे इसकी भी व्यवस्था की थी। विदेशी पूंजी को देसी तकनीकी क्षेत्र में घुसने की इजाजत नहीं थी, जिससे खेल का मैदान सभी के लिए बराबर और सर्वानुकूल रहे। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी के जरिए युवा वोट बैंक की तलाश तो कांग्रेस कर रही है लेकिन सरकार के पास देश के प्रतिभावान युवाओं के लिए कोई योजना नहीं है।
इंदिरा गांधी ने 1967 में कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में युवाओं के लिए रोजगार के रास्ते खोलने के साथ-साथ उन्हें राष्ट्रीय विकास से जोड़ने के लिए स्थायी मदद की बात भी कही और सरकार में आने के बाद अपनी नीतियों के तहत देसी प्रतिभा का उपयोग भी किया। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में प्रतिभा का मतलब आवारा पूंजी की पीठ पर सवार होकर बाजार से ज्यादा से ज्यादा माल खरीदना है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर कांग्रेस पटरी पर लौटेगी कैसे, जब सरकार भी वही है और सरकार की नीतियों को लेकर सवाल भी वही करने लगी है।
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