Monday, May 19, 2014

सेवा भारती की वेबसाइट का उद्घाटन

सेवा भारती की वेबसाइट का उद्घाटन


नई दिल्ली के झण्डेवाला स्थित संघ कार्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में सेवा भारती दिल्ली प्रदेश की वेबसाइटwww.sewabharti.org का उद्घाटन हुआ. उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सेवा प्रमुख श्री सुहासराव हिरेमठ. वेबसाइट का उद्घाटन करने के बाद उपस्थित कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुये उन्होंने कहा कि समाज के लिए हम क्या कर रहे हैं, इसे नई तकनीक के जरिये हर घर तक पहुंचाना समय की मांग है. लोगों को अपने कार्यों को बताना, उनसे सहयोग लेना और फिर अपने कार्यों को विस्तार देना भी आवश्यक है.
पूरे भारत में आर्थिक,सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों के बीच हमारे हजारों सेवा प्रकल्प चल रहे हैं. इन प्रकल्पों से प्रतिदिन सैकड़ों लोग लाभान्वित हो रहे हैं. इन सबकी जानकारी आम लोगों को होगी तो हमारा कार्य और आसान होगा. यह वेबसाइट युवाओं को भी अपने कार्यों से जोड़ने में सहायता करेगी. इससे पूर्व सेवा भारती के मंत्री डॉ. रामकुमार ने कार्यक्रम की भूमिका रखी और उपाध्यक्ष श्रीमती इन्दिरा मोहन ने सेवा भारती की अब तक की विकास यात्रा का विवरण दिया. इस अवसर पर अखिल भारतीय सह सेवा प्रमुख श्री अजीत महापात्रा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दिल्ली प्रान्त के संघचालक श्री कुलभूषण आहूजा, प्रान्त कार्यवाह श्री भारतभूषण,राष्ट्रीय सेवा भारती के अध्यक्ष श्री सूर्यप्रकाश टोंक सहित विभिन्न संगठनों के अनेक वरिष्ठ कार्यकर्ता उपस्थित थे.

संघ और व्यक्ति पूजा

संघ और व्यक्ति पूजा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझना आसान नहीं है. इसका मुख्य कारण यह है कि संघ वर्तमान में प्रचलित किसी राजनीतिक पार्टी या सामाजिक संस्था या संगठन के ढांचे में नहीं बैठता. कुछ लोगों को लगता हैं कि संघ में तानाशाही पद्धति से काम चलता हैं तो कुछ अन्य लोग यह दावा करते हैं कि संघ में नेतृत्व की पूजा होती हैं. ये दोनों भी सत्य से बिल्कुल परे हैं.
व्यक्ति पूजा नहीं
संघ के संस्थापक ने ऐसी एक कार्यशैली का आविष्कार किया है जो व्यक्ति पूजा से कोसों दूर है. संघ में किसी प्रकार से व्यक्ति केन्द्रित नहीं है. हिन्दू परंपरा के अनुसार उस में “गुरु” का स्थान है. यह “गुरु” संघ का भगवा ध्वज है. यह ध्वज त्याग, पवित्रता, और शौर्य का परिचायक है, जिसके सामने संघ के स्वयंसेवक वर्ष में एक बार अपनी सामर्थ्यानुसार गुरु दक्षिणा करते हैं. किसी व्यक्ति के स्थान का निर्धारण इस बात पर निर्भर नहीं होता कि उसने कितना समर्पण किया है. किसी व्यक्ति का गुणगान करने के लिये संघ में किसी तरह का कोई शब्द नहीं है. रोज की प्रार्थना के बाद प्रत्येक स्वयंसेवक जो जयकारा लगाता हैं वह है भारत माता की जय.
अनुशासन का रहस्य
संघ के भीतर का अनुशासन देख कर लोगों को अक्सर आश्चर्य होता है. जब मैं संघ के प्रवक्ता के नाते दिल्ली में था तब एक विदेशी पत्रकार ने मुझसे संघ के इस अनुशासन के रहस्य के बारे में पूछा. मैंने एक क्षण विचार किया और कहा कि शायद इसका कारण यह है कि संघ के अन्दर अनुशासन भंग करने पर कोई दंडात्मक कार्रवाई करने का प्रावधान नहीं है. मुझे पता नहीं कि मेरे इस उत्तर से वह संतुष्ट हुआ या नहीं लेकिन उसने और सवाल नहीं किये. मुझे स्वयं को भी अपने इस उत्तर पर आश्चर्य हुआ. क्या किसी ने सुना है कि संघ के 85 से अधिक साल के इतिहास में किसी के खिलाफ अनुशासन भंग करने के कारण दंडात्मक कारवाई हुई है? किसी स्वयंसेवक ने कभी अनुशासन भंग किया ही नहीं होगा, ऐसी हम कल्पना कर सकते हैं क्या?
अंश’ और ‘सम्पूर्ण’
संघ के विषय में एक और मूलगामी सत्य है. यह संपूर्ण समाज का संगठन है-”अंश” और “संपूर्ण”. इस दोनों शब्दों को ध्यान से समझिये. समाज के अन्दर किसी वर्गविशेष या गुट का संगठन करने हेतु संघ की स्थापना नहीं हुई थी. समाज का एक मिश्रित रूप होता हैं. समाज जीवन की अनेक गतिविधियों के माध्यम से वह अपने आप को अभिव्यक्त करता है. राजनीति ऐसा ही एक क्षेत्र है परन्तु यही एकमात्र है, ऐसा नहीं. शिक्षा, कृषि, व्यापार, उद्योग, धर्म और ऐसे अनेक समाज जीवन के क्षेत्र हैं जिनके माध्यम से समाज अपने आप को अभिव्यक्त करता हैं. संपूर्ण समाज का संगठन यानी समाज जीवन के इन सभी क्षेत्रों का संगठन. इसलिये स्वयंसेवकों को संघ ने विभिन्न क्षेत्रों में जाने की अनुमति दी गई. प्रथम, छात्रों के लिये अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् बनी. इसमें डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से मुलाकात की और संघ से कार्यकर्ता मांगे. उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री नानाजी देशमुख, श्री सुन्दर सिंह भंडारी, श्री कुशाभाऊ ठाकरे और अन्य कार्यकर्ता साथ देने निकले उनके साथ दिया जिन्होंने डॉ. मुखर्जी को भारतीय जनसंघ को बढ़ाने में सहायता की. संघ के एक और प्रमुख प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी को मजदूर क्षेत्र में कार्य करने की इच्छा हुई तो उनको मजदूर क्षेत्र में भेजा गया. धर्म के क्षेत्र में स्वयं श्री गुरूजी ने अगुआई कर विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना की लेकिन वह उसके अध्यक्ष नहीं बने. कहीं सामाजिक सेवा के क्षेत्र में रुचि रखने वाले लोगों ने समाज उत्थान के प्रकल्प शुरू किये और बाद में संघ ने उन्हें कार्यकर्ता दिये, वनवासी कल्याण आश्रम ऐसा ही एक प्रकल्प है.
मैं बलपूर्वक कहना चाहता हूं कि राजनीति यद्यपि समाज जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं फिर भी वही सब कुछ नहीं है. इसलिये संघ की तुलना किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं हो सकती. संघ का हमेशा यह आग्रह रहता है कि हम एक सांस्कृतिक राष्ट्र हैं और स्वयंसेवकों को जिस किसी भी क्षेत्र में वे कार्य करते हैं, यह भूलना नहीं चाहिये और उनके सब प्रयास इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को शक्तिशाली और महिमामंडित करने की दिशा में ही होने चाहिये इस संस्कृति का ऐतिहासिक नाम हिन्दू हैं.
धर्म और ‘रिलीजन’
हिन्दू यह इस्लाम या ईसाइयत जैसा “रिलीजन” नहीं है. डाक्टर राधाकृष्णन ने भी कहा है कि हिन्दू “रिलीजन” नहीं है, वह तो अनेक रिलीजनों का मंडल समुच्चय है. मैं इसमें यह जोड़ना चाहता हूँ कि हिन्दू धर्म का नाम है और धर्म की व्याख्या बहुत व्यापक है. अंग्रेजी भाषा में धर्म का समान अर्थ विशद करने वाला योग्य प्रतिशब्द नहीं हैं. परन्तु हमें यह समझना चाहिये कि धर्म रिलीजन नहीं हैं. रिलीजन धर्म का एक हिस्सा हैं. हमारी भाषा के कुछ शब्द देखिये जैसे धर्मशाला-क्या धर्मशाला रिलीजियस स्कूल है? धर्मार्थ अस्पताल यानी रिलीजन का अस्पताल होता है क्या? या धर्मकांटा यह रिलीजन का वजन करने का तराजू है क्या? यह धर्म हमारी संस्कृति का आधार है और संस्कृति यानी हमारी मूल्य व्यवस्था है. इस मूल्य व्यवस्था के लक्षण हैं श्रद्घा, विचार, और विश्वास इनकी विविधताओं का आदर करना़ अत: हिन्दुइज्म या हिंदुत्व एक विशाल छाते जैसा है जो अनेक श्राद्घों को, विश्वासों को आश्रय देता है.
स्वतंत्र और स्वायत्त
मुझे लगता है मैं कुछ भटक गया हूँ. अपने समाज जीवन की विविधताओं के बारे में मुझे इतना कहना है कि जिस क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवक गये वह प्रत्येक क्षेत्र स्वतंत्र और स्वायत्त है. इन क्षेत्रों की अपनी व्यवस्था हैं, आर्थिक दृष्टि से स्वयंपूर्ण होने की इनकी अलग-अलग पद्धति हैं, और कार्य करने की उनकी अपनी शैली हैं. इन सबमें संघ कभी उलझता नहीं लेकिन मार्गदर्शन जरूर देता है. इन संगठनों के प्रतिनिधि संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में आमंत्रित किये जाते हैं जहाँ वे चर्चा में सहभागी होते हैं और उनके संगठन के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी देते हैं.
विवादित प्रश्न
श्री हरतोष सिंह बल ने जो विवादित प्रश्न उपस्थित किया है भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की व्यक्ति पूजा जिस प्रकार से स्वीकारी है उसे संघ ने कैसे मान लिया? उस को मेरा उत्तर यह है कि चुनाव एक विशेष आयोजन है. मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु किसी एक प्रतीक की आवश्यकता होती है. श्री नरेन्द्रभाई ने उसको पूरा किया है. यह प्रतीक फायदेमंद साबित हुआ है. कितने प्रतिष्ठित लोग भाजपा में शामिल हुये हैं. उनमें पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह, पत्रकार एम.जे. अकबर, और भी अनेक हैं. इसके लिये श्रेय अगर देना है तो बड़े दिल से श्री नरेन्द्र भाई को देना होगा. लेकिन यह भी हमें समझना चाहिये कि नरेन्द्र भाई को इस प्रतीकात्मक की मर्यादाओं का ध्यान है. वे संघ के प्रचारक रहे हैं और संघ की संस्कृति के मूल को समझते हैं और उससे वाकिफ भी हैं. वे प्रतिभाशाली नेता हैं और शाश्वत, समयानुकूल और आपद्घर्म क्या होता है और इनमें क्या अंतर हैं यह वे जानते है.
परिशिष्ट
कारवां मासिक पत्रिका के संपादक महोदय ने मुझे एक प्रश्न भेजा, वह इस प्रकार है कि वाजपेयी जी के नेतृत्व में व्यक्ति पूजा के बिना भाजपा ने चुनाव जीते थे फिर अब क्यों इस प्रकार से व्यक्ति-केन्द्रित प्रचार अभियान नरेन्द्र मोदी को केन्द्रित कर चलाया जा रहा है?
मेरा जवाब था-मैंने मूल लेख में यह स्पष्ट किया है कि चुनाव एक विशेष प्रसंग होता है- मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु किसी प्रतीक की आवश्यकता होती है. उस समय वाजपेयी जी को भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया गया था. श्री आडवाणी जी के साथ भी ऐसा ही हुआ था. फिर भी वाजपेयी जी की लोकप्रियता इतनी थी कि उनके लिये किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता ही नहीं थी. मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में वे विदेश मंत्री थे. भाजपा के वे संस्थापक अध्यक्ष थे. लोकसभा में अनेक वर्षों तक विपक्ष के नेता और राजनीति के केंद्र बिंदु रहे. मोदी जी का कार्यक्षेत्र अभी तक गुजरात ही रहा है. वे अभी भी वहां के मुख्यमंत्री हैं. केन्द्रीय स्तर पर भाजपा ने चुनाव की घोषणा के पहले उनको अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया. आपका संकेत अगर अभी के शोरगुल की और है तो इसके लिये मुझे व्यक्तिश: ऐसा लगता है कि देश का मीडिया जिम्मेदार है. इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि किसी प्रकार की व्यक्ति पूजा का शोर मचाया जा रहा है या इस प्रकार का कोई प्रयास हो रहा है.
मा.गो.वैद्य

राजस्थान में 122 जोड़ों का सामूहिक विवाह

राजस्थान में 122 जोड़ों का सामूहिक विवाह

8 मई को जयपुर में आयोजित चतुर्थ सर्वजातीय सामूहिक विवाह सम्मेलन में 22 जातियों के 65 जोड़े विवाह बन्धन में बंधे. इनमें 6 जोड़ों ने अन्तरजातीय विवाह किया. इस विवाह समारोह का आयोजन सेवा भारती समिति, राजस्थान एवं श्रीराम जानकी विवाह समिति, जयपुर ने किया था. ढेहर के बालाजी के संत हरिशंकर दास एवं नवल सम्प्रदाय के संत मुन्नादास खोड़ा ने नव-दम्पतियों को आशीर्वाद दिया. इस भव्य आयोजन की सफलता में लगभग 300 समाजसेवी कार्यकर्ताओं एवं 500 कर्मचारियों का सहयोग रहा. सम्मेलन में भाग लेने वाले स्त्री-पुरुषों की संख्या लगभग 6000 रही.
समिति के जयपुर विभाग के संगठन मंत्री अनिल शुक्ला ने बताया कि समिति द्वारा जयपुर के अलावा 18 मई को भवानीमण्डी में, 24 मई को इटावा(कोटा) में, 25 मई को नैनवा (बूंदी) में तथा 30 मई को बारां में भी इसी प्रकार के सर्वजातीय सामूहिक विवाह सम्मेलन आयोजित कराये जायेंगे. इससे पूर्व 3 मई को जोधपुर में भी सेवा भारती और सुदर्शन सेवा संस्थान ने सर्वजातीय सामूहिक विवाह का आयोजन किया. इसमें निर्धन परिवारों के 57 जोड़ों का धूमधाम से विवाह कराया गया. 57 दूल्हों की जब बारात निकली तो मानो पूरा शहर उमड़ पड़ा. जगह-जगह लोगों ने इन दूल्हों का भव्य स्वागत किया. विवाह आयोजन समिति के अध्यक्ष श्री रतन लाल गुप्ता “काका” ने बताया कि अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर सामाजिक समरसता के लिए इस विवाह उत्सव का आयोजन किया गया था. विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद देने के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय प्रचारक श्री दुर्गादास, प्रान्त प्रचारक श्री मुरलीधर, प्रान्त संघचालक श्री ललित शर्मा, प्रान्त कार्यवाह श्री जसवंत खत्री, राजस्थान के महाधिवक्ता श्री नरपतमल लोढा, सेवा भारती के श्री किशन गहलोत, विभाग प्रचारक श्री चंद्रशेखर, राज्यसभा सांसद श्री नारायण पंचारिया, जोधपुर के विधायक श्री कैलाश भंसाली सहित अनेक लोग उपस्थित थे.

Friday, May 16, 2014

राष्ट्र जीवन को दिशा देते हैं आदि पत्रकार नारद: राम माधव

राष्ट्र जीवन को दिशा देते हैं आदि पत्रकार नारद: राम माधव


राष्ट्र जीवन को दिशा देते हैं आदि पत्रकार नारद: राम माधव

देहरादून. नारद जी आदि पत्रकार के तौर पर याद किए जाते है. उनका पूरा जीवन सूचना संचार के लिये समर्पित रहा. उन्हें कभी-कभी विदूषक के तौर पर पेश किया जाता है, लेकिन उनके जीवन को देखें तो वह पत्रकारिता के प्रति समर्पण के साथ राष्ट्र जीवन को दिशा देने वाले राष्ट्र ऋषि का प्रतिनिधित्व करते है. नारद जी का चरित्र पत्रकारों के लिए प्रेरणास्रोत है. साथ ही, वह कठिन परिस्थितियों में रहकर अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित रहने और स्वहित को लोकहित के आड़े न आने देने का संदेश भी देते हैं.
ये कहना है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सहसंपर्क प्रमुख राममाधव जी का. राम माधव जी  यहां 14 मई को विश्व संवाद केन्द्र द्वारा नारद जयंती के अवसर पर आयोजित पत्रकार सम्मान समारोह को बतौर मुख्य वक्ता संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा कि देवर्षि नारद दुनिया के प्रथम पत्रकार या पहले संवाददाता हैं, क्योंकि देवर्षि नारद ने इस लोक से उस लोक में परिक्रमा करते हुए संवादों के आदान-प्रदान द्वारा पत्रकारिता प्रारंभ की. इस प्रकार देवर्षि नारद पत्रकारिता के प्रथम पुरुष,पुरोधा पुरुष,पितृ पुरुष हैं.
नारद जी इधर से उधर घूमते हैं तो संवाद का सेतु ही बनाते हैं. जब सेतु बनाया जाता है तो दो बिंदुओं या दो सिरों को मिलाने का कार्य किया जाता है. दरअसल, देवर्षि नारद भी इधर और उधर के दो बिंदुओं के बीच संवाद का सेतु स्थापित करने के लिये संवाददाता का कार्य करते हैं.
इस प्रकार, नारद संवाद का सेतु जोड़ने का कार्य करते हैं, तोड़ने का नहीं. सच तो यह है कि नारद घूमते हुए सीधे संवाद कर रहे हैं और सीधे संवाद भेज रहे हैं. इसलिये नारद सतत सजग-सक्रिय हैं यानी नारद का संवाद टेबल-रिपोर्टिंग नहीं, स्पॉट-रिपोर्टिंग् है. इसलिये उसमें जीवंतता है. वहीं राजनीतिक विषयों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पिछले कई वर्षों से राजनीतिक दल राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने का आरोप लगाते रहे, जबकि संघ एक समाजिक संगठन है. यह बात चुनाव आयोग ने भी स्वीकार की. हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में मीडिया की अहम भूमिका रही.
कार्यक्रम के अध्यक्ष उत्तराखंड संस्कृत विश्व विद्यालय के कुलपति प्रोफेसर महावीर अग्रवाल ने कहा कि रामावतार से लेकर कृष्णावतार तक नारद की पत्रकारिता लोकमंगल की ही पत्रकारिता और लोकहित का ही संवाद-संकलन है. उनके इधर-उधर् संवाद करने से जब राम का रावण से या कृष्ण का कंस से दंगल होता है, तभी तो लोक का मंगल होता है. अतः देवर्षि नारद दिव्य पत्रकार के रूप में लोकमंडल के संवाददाता हैं.
कार्यक्रम में प्रदेश के यशस्वी पत्रकारों को सम्मानित किया गया, जिनमें उत्तर उजाला के भगीरथ शर्मा, गढ़वाल पोस्ट के सतीश शर्मा, स्वतंत्र पत्रकार राजेन्द्र जोशी, वरिष्ठ पत्रकार अविकल थपलियाल, पंजाब केसरी के वीरेन्द्र भारद्वाज और सहारा समय चैनल की वरिष्ठ पत्रकार सुश्री ज्योत्सना जी के नाम शामिल हैं.

Thursday, May 15, 2014

Narad Sanmman-2014 goes to Jagabandhu Mishra





Narad Sanmman-2014 goes to Jagabandhu Mishra
BHUBANESWAR: Editor of Odia weekly Rashtradeep, Jagabandhu Mishra will receive the Narad Sanmman-2014, instituted by Viswa Sambad Kendra, a multi-lingual news agency  here at a function on Thursday.

Born on 18 July, 1950 in the village of Mahanga, he completed his graduation in science in 1970 from Chriest College Cuttack. He did his Ratna in Hindi in 1972 from RPS, Wardha. He completed his M.A. in Odiya in 1998 from Utkal University and PGDJMC in 2002 from IGNOU. He joined in RSS in 1967 and worked there as a Pracharak for seven years from 1970 to 1977.

He was also detained under MISA during emergency period 1975-1977.He is being working as Editor of the famous Odiya nationalistic weekly “RASTRADEEP” since 1986.He is also  at present  a member of executive body of All India News Paper editors’ conference, a member of Indian Language News papers’ Association and founder Vice President of Natioal Editor’s Council.

He has also received “Nachiketa” award in 2004 from the then Prime Minister Atal Bihari Vajpeyee sponsored by the famous Hindi weekly ‘Panchajanya’.

The function will be held at IDCOL auditorium here. Raghunath Pati, the president of Viswa Sambad Kendra,Odisha will preside over the meeting .Gopal Nanda, former DGP joined as Chief Guest and Bipin Bihari Nanda, Pranta Sanghachalak of RSS addressed as Chief Speaker. Mishra  honoured  with a memento and Sal along with a cash award of Ten thousand rupees.

Sumanta Kumar Panda will co-ordinate the function, Gyanendra kumar Nayak read the memento and Haribandhu Praharaj offered vote of thanks. Niranjan Nayak, secretary of Kendra submitted annual report.

The function was arranged on the eve of birth day of Debarshi Narad and award is being conferred to an eminent personality since 12 years who has made significant contribution in the field of positive journalism.

By Golak Chandra Das




देवर्षि नारद पत्रकारों के आदर्श प्रेरणास्रोत

देवर्षि नारद पत्रकारों के आदर्श प्रेरणास्रोत

नारद शब्द की जो परिभाषा हमारे ऋषियों ने की है, उसके अनुसार –
नारं परमात्म विषयकं ज्ञानं ददाति नारदः
नारं नरसमूहम दयते पालयति
ज्ञान दानेनेति नारदः
ददाति नारं ज्ञानं च बालकेभ्यश्च बालकः
जातिस्मरो महाज्ञानी तेनायं नारदभिदः
अर्थात सर्वोच्च या परमज्ञान देने वाले का नाम है नारद. नारं शब्द का अर्थ दो तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं. एक तो सामान्य अर्थ है परमज्ञान, और दूसरा विशेष अर्थ है नर संबंधी ज्ञान. दोनों ही अर्थों से वे परमज्ञान के संरक्षक अर्थात स्वामी हैं. नारद जी के ज्ञान का दायरा कितना विस्तृत था, यह इस प्रसंग से परिलक्षित होता है कि जब वे अपने गुरू जी के पास ज्ञान प्राप्ति के लिये पहुंचे, तब गुरू जी ने उनकी प्रारम्भिक जानकारी के विषय में प्रश्न किया. नारद जी ने विनम्रता से एक लम्बी सूची गुरूजी के सम्मुख रख दी.
रामायण और महाभारत दोनों के इतिहास लेखन में नारद जी की अनूठी भूमिका एवं योगदान का वर्णन मिलता है. प्रथम तो महर्षि वाल्मीकि को रामायण लिखने की प्रेरणा तथा दूसरी धर्मराज युधिष्ठिर को राजनीति समाजनीति की शिक्षा.
एक दिन वाल्मीकि आश्रम में नारद जी पहुँच गये. वाल्मीकि सही में किसी परिपूर्ण मानव की तलाश में थे. ऐसा माना जाता है कि परिपूर्ण मानव अर्थात जिसमें 16 गुण हों. किन्तु नारद जी ने 57 गुण वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र महाप्रभु की कथा उनके सम्मुख प्रस्तुत की;  जिसे सुनकर वाल्मीकि भाव-विभोर हो गये, अत्यंत प्रभावित हो गये. वाल्मीकि जी ने नारद जी को दंडवत प्रणाम किया और अपने शिष्य भारद्वाज के साथ तमसा नदी के लिये प्रस्थान किया. स्वच्छ शांत और पवित्र वातावरण में वाल्मीकि जब विचारों में लीन थे, तभी एक बहेलिये ने काम क्रीड़ा में रत क्रोंच पक्षी के जोड़े में से एक को तीर चलाकर मार डाला. अपने प्रेमी की मृत्यु को देखकर दूसरे पक्षी ने भी विरह में प्राण त्याग दिये . आनंद की पराकाष्ठा से असहनीय दुःख के पाताल में गिर गये वाल्मीकि. शांत एवं प्रसन्नचित्त वाल्मीकि क्रोध से भर गये . शोकार्त वाल्मीकि के मुख से अपने आप कुछ शब्द निकले. ‘मा निषाद प्रतिष्ठां..’ हे ! निषाद तुमने निर्ममता पूर्वक जो यह क्रूर एवं जघन्य कृत्य किया है, अतः तुम्हारा जीवन शाश्वत नहीं रहेगा, तुम अल्पायु हो जाओगे. उनके मुख से निकला हुआ वह श्लोक ही सृष्टि का पहला काव्य था, ऐसा कहा जाता है . स्वयं वाल्मीकि भी चमत्कृत हो गये. उनको भी समझ नहीं आया कि उनके मुख से यह क्या निकला और क्यों निकला? निषाद तो उसी समय भस्मीभूत हो गया. अतः उन्होंने अपने शिष्य से पूछा कि यह सब क्या है ? उनकी वह जिज्ञासा भी काव्य रूप में ही प्रकट हुई .
पाद्बद्धोSक्षर समस्तंत्री लय समन्वित
शोकार्त्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यतः .
इतनी क्रमबद्ध पंक्तियाँ एवं शब्द, वीणा की तंत्री में से निकलने वाली स्वरलहरी के समान लयबद्ध होकर कैसे निकले ? क्या शोक से भरे मन से निकलने वाले शब्दों का सार ही श्लोक कहलाता है ?
संध्यावंदन कर भारी मन से वे आश्रम वापस लौटे . वहां उनके सम्मुख स्वयं ब्रह्मदेव प्रकट हुये. ब्रह्मदेव ने उन्हें आदेश दिया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जो कथा नारद जी ने उन्हें सुनाई थी, उसे इतिहास के रूप में लिखो. लिखने की शैली वही हो,जो “मा निषाद……” में इस्तेमाल की गई थी. वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी के आदेशानुसार नारद जी द्वारा दी गई विषय वस्तु पर रामायण की रचना की.
उस पूरे इतिहास में नारद जी कई बार प्रकट होते रहते हैं. जब जब कहानी के प्रवाह में गंभीर मोड़ आते हैं, उस समय धर्म की परिभाषा बताने एवं मार्गदर्शन करने नारद जी उपस्थित होते हैं. वे पात्रों के मन को इधर-उधर भटकने नहीं देते. सभी पुराणों में नारद जी की भूमिका ऐसी ही रहती है. धर्म की व्याख्या करने की असाधारण योग्यता और सटीक ढंग से प्रस्तुत करने की अनुपम शैली, यही थी नारद जी की सबसे बड़ी विशेषता.
इसी प्रकार महाभारत देखिये. ऐसा माना जाता है कि धर्मराज के साथ उनका संवाद एक प्रकार से सुराज की कार्यपद्धति का आश्चर्यजनक उदाहरण है. और यह है भी सच कि वह सोद्देश्य संवाद विश्व के सब सत्ताधारियों के लये एक सार्वकालिक गीता है.
महाराजा युधिष्ठिर की अद्वितीय राजसभा में देवर्षि नारद मुनि ने प्रवेश किया. अतिथि सत्कार और सम्मान सब होने के बाद नारद जी ने पहले पुरुषार्थ के विषय में उपदेश दिया. धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का प्राधान्य, उन्हें पाने की विधि एवं प्रयोग की जानकारी विस्तृत ढंग से मुनि ने राजा सहित सबको सिखाई. ज्ञानोपदेश का यह तरीका एक प्रकार की प्रश्नोत्तरी के रूप में था. अंग्रेजी में इसको catechism कहते हैं, अर्थात पूर्व निर्धारित सवालों का उत्तर देने की शैली. एक राज्यकर्ता के दायित्वों की सम्पूर्ण सूची है यह प्रश्नोत्तरी. नारद जी ने धर्म संहिता, क़ानून संहिता एवं राज्य की जिम्मेदारियों से सम्बंधित जो 123 सवाल उस समय उठाये, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. एक प्रकार से ज्यादा प्रासंगिक हैं ऐसा कहा जा सकता है.
हम सबको गांधीजी की रामराज्य की कल्पना के विषय में मालूम है. उस कल्पना के मूर्तरूप धर्मपुत्र के सम्मुख नारद जी द्वारा रखे गए विस्तृत दर्शन. राज्य दर्शन, राज, राज्य, सत्तानीति, दायित्व एवं जिम्मेदारियां, सावधानियां सब इस दर्शन में समाहित है. उन्होंने बताया कि दायित्व के दो पहलू हैं. एक शुचिता संबंधी और दूसरा वैधानिक. नारद जी के वे उपदेश मात्र भौतिक प्रगति या सर्वसाधारण जीवन की मामूली बातों को नियमन करने वाला सूत्र नहीं हैं, बल्कि यह कहा जा सकता है कि तदनुसार जीवन बिताने वाला व्यक्ति आध्यात्मिकता के शीर्ष शिखर पर पहुंचेगा.
सुराज न केवल वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बल्कि सार्वकालिक सुसंगत व प्रासंगिक भी है. आज की वास्तविकता यह है कि तथाकथित लोकतांत्रिक सत्ता से जुड़ी हुई संस्था कहो या व्यवस्था कहो, सब आम जनता की पहुँच से परे है. दूसरी ओर ढोल पीटा जाता है कि सब कुछ आमजनता के लिये है. सत्यता, निष्ठा एवं मूल्यों का कार्यप्रणाली में कोई स्थान नहीं है. सभी स्वार्थ और कुटिलता के सहारे राज्य करते हैं. हमारी समस्याओं के लिये विदेशियों को दोषी ठहराने से कोई लाभ नहीं .
आज की स्थिति क्या है ? अंग्रेजों ने अपनी सत्ता अबाधित चलाने के लिये जो व्यवस्था, ढांचा एवं कार्य प्रणाली बनाई, उसको स्वतंत्र भारत में भी बेशर्मी से ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है. स्वतंत्र का सही मतलब समझने में हम पूरी तरह नाकाम रहे हैं. स्व – तंत्र माने मात्र आजादी नहीं “स्व” के आधार पर तंत्र चला सकें, उस स्थिति को ही स्वतंत्र कह सकते हैं. अन्यों के तंत्र के आधार पर चलने वाली सत्ता तो वस्तुत: परतंत्रता है. आज की स्थिति में तो हम स्वतंत्र नहीं हैं. प्रत्येक विभाग में विदेशी तत्वों द्वारा निर्मित क़ानूनों, सिद्धांतों एवं नीतियों के आधार पर ही काम हो रहा है. वे उसी प्रकार विद्यमान हैं, मानो आज भी विदेशी ताकतों के हाथ में कमान हो. पदों के नाम बदलने तक की हिम्मत सत्ताधारियों ने अभी तक नहीं दिखाई है. उदाहरणार्थ एक जिले का सर्वोच्च लोक सेवक कौन है ? हमने आईसीएस को आईएस बनाया है, लेकिन कलेक्टर का नाम नहीं बदला. क्या मतलब है कलेक्टर शब्द का ? कलेक्टर गज वन हू कलेक्ट्स- जो संग्रह करे वह कलेक्टर. क्या कलेक्ट करने वाला? अंग्रेजों के जमाने में उन्होंने अपने भरोसेमंद चुने हुए लोगों को प्रत्येक जिले में अपने लिये राजस्व संग्रह के लिये कलेक्टर नियुक्त किये. मतलब अंग्रेजों ने उन्हें सबसे ज्यादा पैसा आम जनता से इकट्ठा करने के लिये नौकरी दी. कमिश्नर की भी यही स्थिति है .
अभी देखिये, सब क्षेत्रों में चाहे शिक्षा हो या उद्योग, इतिहास हो या अर्थशास्त्र, सब मोर्चों पर विदेशी नीतियाँ ही चलती हैं. अपने नेतागण भारत का अपना मौलिक ढांचा खड़ा करने के लिये तैयार नहीं. अपने इतिहास एवं परम्पराओं से प्रेरणा पाकर अग्रसर होने को तैयार नहीं. दूसरी ओर आप नारद जी को देखिये. उन्होंने सुराज के विषय में युधिष्ठिर से 123 सवाल पूछे. सबसे रोचक बात यह है कि युधिष्ठिर ने क्रम से उत्तर देने की जगह सब का उत्तर एक साथ दिया और यह सिद्ध कर दिया कि राजा ने सुशासन की दृष्टि से प्रत्येक पग नारद जी के आदेश व उपदेश के आधार पर ही उठाया है .
मोटे तौर पर उन सभी प्रश्नों को पांच भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है. पहला भाग धर्म है. नारद जी का सबसे पहला प्रश्न यह था कि “अर्थचिंतन के साथ आप धर्मचिंतन भी करते हैं अथवा नहीं ?” ओ धर्मराज ! यह बताइये कि अर्थचिंतन की व्यापकता के कारण धर्मचिंतन तो प्रभावित नहीं हो रहा ? इसके साथ नारद जी यह भी पूछते हैं कि धर्मचिंतन ज्यादा होने के कारण कहीं राजकोष रिक्त तो नहीं हो रहा ? भोग लालसा के कारण क्या धर्मकार्यों में बाधा पहुँचती है ? या आर्थिक विकास के मार्ग में भी बाधा इस कारण आती है क्या ?
दूसरे विभाग के सब सवाल सामाजिक विकास के मुद्दों पर आधारित हैं. सात विभागों के बारे में वे सवाल उठाते हैं. 1 – कृषि, 2 – वाणिज्य, 3 – सुरक्षा (दुर्गों का आंतरिक प्रबंधन), 4 – पुल का निर्माण, 5 – गाय को चराने के लिये भूमि, 6 – राज्यकर संग्रह व्यवस्था विशेष रूप से खदानों से, 7 – रहने के लिये नई बस्तियों का निर्माण .
वे सब विभागों के प्रति बहुत सजग थे .
उदाहण के तौर पर कृषि के बारे में उन्होंने कहा था -
•राजन मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि क्या आपके राज्य में सभी किसान संतुष्ट व श्रीमंत हैं.
•क्या आपने ईमानदारी से कृषकों के लिए तालाब, सरस बनवाये हैं और उनको भरने का प्रबंधन किया है.
•क्या खेती केवल मानसून पर निर्भर है?
•क्या अगले वर्ष के लिये बीज संग्रह एवं अकाल पड़ा है तो भोजन प्रबंधन ठीक तरह से कर चुके हैं?
•किसानों की मांग के आधार पर धनापूर्ति की व्यवस्था की है अथवा नहीं?
आप ज़रा आज की खेती की हालत देखिये. नारद जी श्रीमंत और संतुष्ट किसानों को देश की सबसे महत्वपूर्ण पूंजी समझते थे, लेकिन उसी भारत में भारी संख्या में किसान अपनी जिन्दगी को बोझ मानकर आत्महत्या कर रहे हैं .
सवालों की तीसरी श्रेणी मंत्रियों एवं अधिकारियों के बारे में है –
•क्या आपने अपने मंत्रमंडल में चरित्रवान, ईमानदार, त्यागी, कर्मकुशल, समाज के प्रति निष्ठा रखने वालों को मंत्री के रूप में शामिल किया है?
•क्या आप अपने प्रत्येक विभाग को चलाने के लिये ईमानदार, निर्लोभी, सेवाभाव से काम करने वाले जानकार व्यक्तियों को अधिकारी के रूप में रखते हैं?
•आपको यह जानना होगा कि एक जानकार व्यक्ति एक हजार बेवकूफों से अधिक अच्छा है.
•प्रत्येक क्षेत्र के स्तर एवं आवश्यकता के अनुसार आप योग्य व्यक्ति को चुनते हैं, अथवा नहीं? (आज की स्थिति क्या है?)
•अपने विभाग में अच्छी तरह कार्य निर्वाह करने वाले मंत्रियों की आप प्रशंसा करते हैं अथवा नहीं.
•क्या वे शुद्ध व्यक्तित्व एवं समृद्ध परम्परा से जुड़े लोग हैं?
•कहीं आप अच्छे, ईमानदार, निपुण, समाज की भलाई के लिये काम करने वाले अधिकारियों को किसी और के दोष के कारण सजा तो नहीं देते?
सामाजिक कल्याण एवं प्रजा की स्थिति के बारे में भी नारद जी ने अनेक सवाल उठाये.
•क्या आप एक परवाह करने वाले पिता व प्यार करने वाली माता की तरह अपने हर नागरिक को देखते हैं?
•मुझे पूरा विश्वास है कि आपकी ईमानदारी एवं निष्पक्षता पर कोई भी नागरिक उंगली नहीं उठाता.
•क्या राज्य में महिलावर्ग सुरक्षित है? वे अक्सर सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेती हैं क्या?
•विकलांग वन्धुओं की सुख सुविधा के लिये क्या व्यवस्था की गई है?
•संत सन्यासियों की देखभाल के लिये श्रद्धा एवं अपनेपन के भाव से क्या विशेष प्रबंधन किया है?
एक ख़ास व विशेष सवाल जो आज भी सुसंगत है, वह ऐसा है कि, “क्या आपको पूरी उम्मीद है कि पूरे सबूतों के साथ पकड़े गए चोरों को आपके अधिकारी धन के लालच में छोड़ते नहीं हैं ?”
विचार कर देखिये कि आज चारों ओर क्या हो रहा है?
आगे चलकर नारद जी ने राजा से उनके दैनिक कार्यकलापों के बारे में भी पूछा. जगने का समय, करणीय कार्यों के बारे में बारीकी से विचार करते हैं क्या, किये हुए कामों की बाद में समीक्षा के बारे में, आप निर्णय अकेले लेते हैं अथवा तज्ञ सहकारियों से विचार-विमर्श के बाद आदि आदि .
•देश की सुरक्षा के लिये प्राण न्यौछावर करने वाले सुरक्षाकर्मियों के परिजनों के साथ आपका व्यवहार कैसा है? क्या आप उन्हें अपने पुत्र-पुत्रियों के समान समझते हैं?
•क्या आप बुजुर्ग, अनुभवी, जानकार व्यक्तियों के सुझाव एवं सूचनाओं को पूरे ध्यान से सुनते हैं?
•क्या अपने दोषों का, जैसे नींद, आलस्य, भय, क्रोध, टालमटोल, प्रतिशोध आदि का त्याग कर दिया है?
सुरक्षा, युद्ध की तैयारी, जासूसी, रणनीति संबंधी सवाल भी पूछे. ये पढ़कर ऐसा लगता है कि ये सब सवाल मात्र राजा की जानकारी अथवा सत्ताधारियों को समझाने के लिये नहीं उठाए गये, इसके साथ-साथ आम जनता को भी अपने अधिकारों के बारे में सजग बनाने के लिये भी थे कि राजसत्ता से क्या-क्या अपेक्षा रख सकते हो ?
अगर देश में वास्तविक अर्थों में सुराज लाना है तो देवर्षि नारद मुनि का उपरोक्त दर्शन एक उज्जवल एवं स्पष्ट मार्गदर्शक होगा. निश्चित रूप से यह भी कह सकते हैं कि उस दर्शन की सहायता से भविष्य में आगे बढ़ने की दिशा मिलती है. एक बात पक्की है कि नारद – युधिष्ठिर संवाद के हर बिंदु पर गहराई से अध्ययन व शोध करने की आवश्यकता है.
नारद मुनि धर्म के प्रचार एवं समाज कल्याण के क्षेत्र में हमेशा बहुत सक्रिय रहे. हमारे ग्रंथों, पुराणों में उन्हें भगवान का मन ऐसा माना जाता है. इसलिये सब वर्गों के बीच में चाहे देव हों अथवा दानव, नारद जी की स्वीकार्यता थी. सब प्रकार के लोग उनके मार्गदर्शन को मानते थे. भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षियों के बीच सबसे प्रथम गणनीय स्थान उन्हें दिया है.
महाभारत के सभा पर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी को उपनिषद् ज्ञाता कहा गया है. इतिहास पुराणों के ज्ञानी इस नाते नारद जी की देवता लोग भी आराधना करते हैं. इन सभी गुणों के साथ वे एक महान संचारक भी थे. पूरे संसार के सबसे प्रथम संवाददाता या पत्रकार, ऐसा नारद जी का स्थान है. पत्रकारिता में उनकी प्रवीणता और संवाद की निपुणता उनके द्वारा युधिष्ठिर को दिए हुये उपदेशों में स्पष्ट दिखाई देती है. एक अन्य स्थान पर उन्होंने आम जनता की शक्ति किसके ऊपर निर्भर है, यह बताया है. जितने प्रमाण में जनता को सूचनाएयें मिलती हैं, उतने प्रमाण में वह शक्तिसंपन्न होती है. पूरे विश्व में क्या, कैसे, कब हो रहा है, इसकी जानकारी उसको अवश्य मिलना चाहिये. इसलिये एक जिम्मेदार राज्यकर्ता समाज तक सही सूचनायें एवं समाचार पहुंचाने का इन्तजाम  अवश्य करे.
एक अच्छे पत्रकार में जो कुछ गुण चाहिये, वे सब नारद जी में दिखाई देते हैं. सबसे पहले स्थिति को गहराई से समझना. एक पत्रकार में कृत्यता एवं समग्रता चाहिये. सूचना की समीक्षा करने की सामर्थ्य भी चाहिये. इसके साथ सम्बंधित समस्त सूचनायें संकलित करना और उनका अध्ययन करना आवश्यक है. अगला बिंदु है अनुवर्ती घटनाक्रमों के विषय में कल्पना करने की क्षमता (पूर्वानुमान). सबसे महत्वपूर्ण पहलू, प्रस्तुत करने की शैली और ढंग है. इन सभी तथ्यों को मानकर एक पत्रकार को उपयुक्त रीति एवं सटीक शब्दों के साथ अपने कार्य में आगे बढ़ना चाहिये.
आदि पर्व में भगवान व्यास ने नारद जी का समग्र चित्र प्रस्तुत किया है –
अर्थ निर्वचनं नित्यं
संशयच्छिद संशयः
प्रकृत्या धर्मकुशलो
नाना धर्म विशारदः
एक शब्दाश्च नानार्थान
एकार्थश्च पृथगच्छ्रतीन
प्रथगर्थाभिदानश्च
प्रथोगाणा भवेच्छिद
प्रमाण भूतो लोकस्य
सर्वाधिकारणेषु च
सर्व वर्ण विकारेषु
नित्यं सकल पूजितः
उद्देश्यानां समाख्याता
सर्वमाख्यात मुद्दिशन
अभिसंधिषु तत्वज्ञः
पदान्यडगान्यनुस्मरन
काल धर्में निर्दिष्टम
यथार्थं न विचारयन
चिकीर्षितं च यो वेत्ता
यथा लोकेन संवृतं
विभाषितं च समयं
भाषितं हृदयंगमं
आत्मने च परक्ष्मै च
स्वर संस्कार योगवान
एषां स्वराणाम वेत्ता च
बोद्धा च वचन स्वरान
विज्ञाता चोक्त वाक्यानां
एकतां बहुतां तथा
कुल 21 श्लोकों में वेदव्यास जी ने उस विशेष अवसर पर नारद मुनि के गुणों के बारे में बताया था .
स्थितियों को ठीक प्रकार से समझकर, सभी सम्बंधित तथ्यों के दृष्टिगत नारद जी स्पष्ट रूप से संवाद करते थे. धर्म के विभिन्न पहलुओं के बारे में सम्पूर्ण जानकारी एवं प्रयोग में लाने की निपुणता, एक शब्द के अनेक अर्थ और एक अर्थ वाले विभिन्न शब्दों की जानकारी, सही शब्द का सही समय पर प्रयोग, भाषा के ऊपर अधिकार एवं पदावली की सही समझ उनको थी. आज के पत्रकार जगत को नारद जी से प्रेरणा लेनी चाहिये .
संवाद संकलन को पवित्र कार्य मानना चाहिये. रेटिंग बढ़ाने के लिये किसी की भी राय अपनाना अच्छा नहीं है.
एक पत्रकार को किसी भी हालत में, स्वार्थवश अथवा पैसे के लालच में हीन युक्तियों (डर्टी ट्रिक्स) से बचना चाहिये.
1 Shoot & scoot
पूजनीय मोहन जी भागवत के उद्वोबोन में पश्चिमी अपसंस्कृति की आलोचना को गलत ढंग से प्रचारित कर कुछ समाचार पत्रों द्वारा बलात्कार से जोड़ा गया. गलत प्रमाणित होने पर खेद प्रकट या तो किया ही नहीं गया, या किया गया तो बहुत सामान्य से समाचार के रूप में.
2 Cut & Paste (Pan Cake intellectualism)
अप्रमाणित समाचारों का बिना समुचित पुष्टि के प्रकाशित या प्रसारित किया जाना. इस प्रकार की टेबिल न्यूज द्वारा अच्छे व्यक्तियों को घटिया प्रमाणित करना तथा बुराई का महिमामंडन किया जाना.
3 Stoop & Rate (मनीष पीताम्बरे)
केवल रेटिंग बढाने का ध्यान रखना. राष्ट्रहित परक समाचारों को कोई महत्व नहीं. उदाहरणार्थ मनीष पीताम्बरे ने आतंकियों से लोहा लेते हुए बलिदान दिया. चार आतंकवादी मारे भी गये. किन्तु इतने महत्वपूर्ण समाचार को न्यूजचेनलों में स्थान नहीं मिला, उसके स्थान पर दिन भर संजय दत्त छाया रहा.
महान लेखक, नारद स्मृति सहित अनेक ग्रन्थ लिखने वाले, तीनों लोकों को जानकारी रखने वाले आदिपत्रकार नारद को आदर्श बनायें तथा इस प्रकार समाज में सज्जन शक्ति को स्थापित करने में अपना योगदान दें.
(लेखक जे. नन्दकुमार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अ. भा. सह प्रचार प्रमुख हैं)

आदि-अनादि संवाददाता नारद

आदि-अनादि संवाददाता नारद

कुछ विधायें ऐसी होती हैं जो कालजयी होती हैं. समय और परिस्थितियां उनकी जरूरत महत्व को प्रभावित नहीं कर पातीं. बस उनका नाम और रूप बदलता है. कहने-सुनने या उन्हें इस्तेमाल करने का अंदाज बदलता है, लेकिन उनका मूल तत्व नहीं बदलता. पत्रकारिता ऐसी ही विधा है. पत्रकारिता करने वालों को पत्रकार कहें, संवाददाता कहें अथवा मीडियाकर्मी. यह नाम समय के बदलाव और तकनीक के विकास के कारण बदले. जब संचार के आधुनिक साधन नहीं थे, या संवाद संप्रेषण के लिये कागज-कलम का प्रयोग नहीं होता था, तब तक इस विधा से जुड़े लोग संवाददाता ही कहलाते थे. अपनी भावनाओं, अपनी जरूरतों या अपने अनुभव का संदेश देना और दूसरे से संदेश लेना प्रत्येक प्राणी का प्राकृतिक गुण है, स्वभाव है. अब वह ध्वनि में हो या संकेत में, सभी प्राणी ऐसा करते देखे जाते हैं. मनुष्य ने अपना विकास किया. उसने ध्वनि को पहले स्वर में बदला फिर शब्दों में और शब्दों को संवाद में. वह संवाद संप्रेषण करता है और ग्रहण भी. जीवन का दायरा बढ़ने के साथ संदेशों की जिज्ञासायें भी बढ़ीं और आवश्यकतायें भी. नारद इसी आवश्यकता की पूर्ति करने वाले पहले संवाददाता प्रतीत होते हैं. हो सकता है नारद से पहले स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर कुछ संवाददाता रहे हों, किंतु उनका उल्लेख नहीं मिलता. एक संवाददाता के रूप में पहला उल्लेख केवल नारदजी का ही मिलता है. उनका संपर्क संसार के हर कोने में, हर प्रमुख व्यक्ति से मिलता है.
भारतीय वांग्मय की ऐसी कोई पुस्तक नहीं, जिसमें नारद का जिक्र न हो. प्रत्येक पुराण कथा में नारद एक महत्वपूर्ण पात्र हैं, वे घटनाओं को केवल देखते भर नहीं हैं, बल्कि उन्हें एक सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं. संसार में घटने वाली हरेक घटना एवं व्यक्ति का विवरण उनकी जुबान पर होता है. वे हर उस स्थान पर दिखाई देते हैं जहां उनकी जरूरत होती है. वे कहीं जाने के लिये आमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करते और न संवाद संप्रेषण के लिये किसी प्रेस-नोट की. वे अपनी शैली में संवाद तैयार करते हैं और संप्रेषित करते हैं. उनका कोई भी संवाद निरर्थक नहीं होता. हरेक संवाद सार्थक है और समाज को दिशा देने वाला. उनकी प्रत्येक गतिविधि प्रत्येक क्रिया आज भी सार्थक है और सीखने लायक.
नारद जी के बारे में माना जाता है कि कभी किसी स्थान पर रुकते नहीं थे, सदैव भ्रमणशील रहते थे. इसका संदेश है कि पत्रकारों अथवा मीडिया कर्मियों को भी सदैव सक्रिय रहना चाहिये. समाचार या संवाद के लिये किसी एक व्यक्ति अथवा एक स्थान पर निर्भर न रहें. आज के मीडिया में विसंगतियां केवल इसलिये हैं कि मीडियाकर्मी अधिकांश समय पार्टी मुख्यालय, शासन मुख्यालय अथवा प्रवक्ताओं पर आश्रित हो गये. उनके अपने संवादसूत्र कम होते हैं. बड़े-बड़े स्टिंग ऑपरेशन अथवा स्कैंडलों का भंडाफोड़ भी इसलिये हो पाया कि पत्रकारों ने उनसे एप्रोच की. जबकि नारद जी के मामले में ऐसा नहीं था. उनकी दृष्टि की तीक्ष्णता अथवा श्रवण शक्ति की अनंतता का आशय है कि विभिन्न क्षेत्रों में उनके सूत्र कायम रहे होंगे. उनका अपना नेटवर्क इतना तगड़ा रहा होगा कि उन्हें प्रत्येक महत्वपूर्ण सूचना समय पर मिल जाती थी.
नारद जी का समय-समय पर नेमिशारण्य में ऋषियों की सभा में, कैलाश पर शिव के ज्ञान संग में जाने, पुलस्त्य से अभिराम (परशुराम) कथा, गरुण से रामकथा सुनने अथवा बद्रिकारण्य में तप करने के प्रसंग मिलते हैं. इन प्रसंगों में संदेश है कि मीडियाकर्मियों को अपने लिये निर्धारित कामों के बीच में समय निकालकर स्वयं के लिये ज्ञानार्जन का काम भी करना चाहिये. तप करने का अर्थ कुछ दिनों के लिये थोड़ा हटकर मेडीटेशन हो सकता है. हम अपने सीमित ज्ञान से असीमित काम नहीं कर सकते. जिस प्रकार कम्प्यूटर के सॉफ्टवेयर को डाटा अपडेशन की जरूरत होती है, ठीक उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क को भी ताजी जानकारियों, बदली परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को अपडेट करने की जरूरत होती है. जिन पत्रकारों ने ऐसा नहीं किया वे आउट ऑफ डेट हो गये. नारद युगों तक इसलिये प्रासंगिक रहे कि ऋषियों के पास जाकर स्वयं को अपडेट करते रहे. ऋषियों के पास जाने से उनको दोहरा लाभ होता था. एक तो वे ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से अपडेट होते थे. साथ ही, उन्हें संसार की सूचनायें मिलती थीं. उस जमाने में ऋषि आश्रम सामाजिक गतिविधियों, संस्कार, शिक्षा और व्यवस्थात्मक मार्गदर्शन का केन्द्र होते थे. आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास अनुभव है, वे चलती-फिरती संस्थायें हैं और उनका जनसंपर्क बहुत है. यदि मीडियाकर्मी उनसे मिलेंगे, कुछ वक्त उनके साथ गुजारेंगे तो सूचनायें मिलेंगी. स्टोरी के लिये नई दृष्टि मिलेगी और अनुभव का लाभ मिलेगा सो अलग. इसी तरह आज की भागदौड़ से भरी जिंदगी में बहुत तनाव है, स्पर्धा है, जिससे तनाव होता है. इसका निराकरण ध्यान से होता है जो उस जमाने में तप के रूप में जाना जाता था और नारद यह बद्रिकाश्रम में जाकर करते थे.
नारद जी का संपर्क व्यापक था. वे देवों के बीच जाते थे और दैत्यों के बीच भी. वे गंधर्वों से  भी मिलते और असुर-राक्षसों से भी. वे धरती पर मनुष्यों के बीच भी पहुंचते थे एवं नागों-मरुतों के बीच भी. उनका सब समानरूप से आदर करते थे. ऐसे उदाहरण तो हैं कि किसी को उनका आना पसंद न था, लेकिन ऐसा एक भी प्रसंग नहीं है कि कहीं उनका अपमान हुआ हो. इसकी नौबत आने से पहले ही वह वहां से चल देते थे. उनकी इस शैली से आज के मीडियाकर्मियों को संदेश है कि वे अपना संपर्क कायम रखें. कोई भी उन्हें दुश्मन न समझे. यदि किसी के विरुद्ध भी हो तो भी चेहरे से, भाव-भाषा से न झलके. भावनायें चाहे जैसी हों, लेकिन व्यवहार के स्तर पर सबसे समान व्यवहार करें. सबसे मीठा बोलो, सबको लगना चाहिये कि वे उनके हित की बातें कर रहे हैं. नारद जी के चरित्र से एक बात साफ झलकती है, वह कि नारद जी का समर्पण नारायण के प्रति था. वे अधिकांश सूचनायें नारायण को ही दिया करते थे. उन्हीं का नाम सदैव उनकी जुबान पर होता था और उनके विरुद्ध षड्य़ंत्र करने वालों के विरुद्ध योजनापूर्वक अभियान भी चलाया. उनके इस गुण में दो विशेषतायें साफ हैं, एक तो उन्होंने नारायण के प्रति अपना समर्पण नहीं भुलाया और दूसरा यह कि जब उन्होंने नारायण के विरोधियों के विरुद्ध अभियान चलाया तो यह तथ्य अंत तक किसी को पता नहीं चला और न उन्होंने इसका श्रेय लेने का प्रयास किया. इसका उदाहरण हम हिरण्यकश्यप के प्रसंग में देख सकते हैं. हिरण्यकश्यप की पत्नी कपादु को नारद जी ने ही शरण दी. उन्हीं के संरक्षण में प्रहलाद का जन्म हुआ. उन्होंने ही प्रहलाद को नारायण के प्रति समर्पण की शिक्षा दी. इतना बड़ा अभियान बहुत धीमी गति से वर्षों चला. और जब प्रहलाद के आव्हान पर भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप का वध किया, तब नारद वहां दिखाई नहीं देते. स्वयं श्रेये लेने का प्रयास नहीं करते, वे लग जाते हैं किसी दूसरे अभियान में.
इस प्रसंग में आज के मीडियाकर्मियों या पत्रकारों को संदेश है कि वे सदैव सत्य के संस्थापकों की लाइजनिंग करें. सत्य के विरोधी और अहंकारी की ताकत कितनी भी प्रबल क्यों न हो उससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसी के बीच से रास्ता निकाला जाता है. यदि कोई अहंकारी है, अराजक तत्व है जिससे राष्ट्र को, संस्कृति को और सत्य को हानि हो रही है, तब उसके परिवार में घुसकर सूत्र बनाना, संवाद संग्रह करना बड़ी युक्ति और धीरज से करना चाहिये वह भी श्रेय लेने की लालसा से दूर रहकर, जैसा नारद जी ने किया. लेकिन आज उलटा हो रहा है. अराजक तत्वों की, आतंकवादियों की या नक्सलवादियों की मीडियाकर्मियों के माध्यम से जितनी सूचनायें शासन तक जाती हैं, उससे ज्यादा उन्हें मिल जाती हैं. यही कारण है कि उनके हमलों से जन सामान्य आक्रांत हो रहा है.
नारद जी की इतनी विशेषतायें होने के बावजूद उनके चरित्र की समाज में नकारात्मक प्रस्तुति की गई है. उन्हें लड़ाने वाला और इधर की बात उधर करने वाला माना जाता है. इसका कारण संभवत: दो हो सकते हैं. एक तो यह कि भारत लगभग एक हजार वर्ष तक गुलाम रहा. कोई भी समाज गुलाम तब रहता है, जब उस समाज या देश के संस्कार, संगठन, स्वाभिमान और शक्ति खत्म हो जाये. इसके लिये जरूरी है कि उसे उसकी जड़ों से दूर किया जाये. उसके गौरव प्रतीकों की या तो जानकारी न दी जाये अथवा विकृत करने दी जाये. भारत में योजनापूर्वक भारतीय महापुरुषों को, गौरव के प्रतीकों को विकृत करके प्रस्तुत किया गया. नारद जी उसमें से एक हैं. कृष्ण कर्मेश्वर हैं, योगेश्वर हैं, नीतेश्वर हैं लेकिन उनके रास के प्रसंगों की अतिरिक्त चर्चा नहीं होती. परशुराम जी के चरित्र को कैसा प्रस्तुत किया जाता है, यह किसी से छिपा नहीं है. राम के चरित्र को कल्पना बताया जाता है, जबकि विदेशी आक्रांताओं को महान कहकर महिमामंडित किया जाता है. इसका कारण यह हो सकता है कि हम अपने बच्चों को ऐसा चरित्र समझाने से बचना चाहते हैँ जो यश-ऐश्वर्य के साधन अर्जित करने के बजाय चौबीस घंटे सेवा में लगा रहे. आज की पीढ़ी इस वास्तविकता को समझ रही है और चरित्रों का अन्वेषण करके सत्य सामने ला रही है. नारद जी के चरित्र पर भी होने वाले कार्यक्रम, संगोष्ठियां इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हैं.
नारद जी के भक्तिसूत्र और नीतिसूत्र भी हैं. उनके नीतिसूत्र में राजकाज चलाने, दंड देने आदि की बाते हैं. जो आज के पत्रकारों को इस बात का संदेश है कि वे अपने अध्ययन, अनुभव और चिंतन के आधार पर कोई ऐसा संदेश समाज को दें जो आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन कर सके. आज के कितने पत्रकार हैं, जो अखबार से हटते ही या टीवी चैनल से दूर होते ही अप्रासंगिक हो जाते हैं. इसका कारण यह है कि उनका जीवन अध्ययन कम होता है, राष्ट्रबोध कम होता है इसलिये अनुभव परिपक्व नहीं होता. नारद जी जीवनभर अपना काम करने के साथ-साथ अध्ययन भी करते रहे इसीलिये वे भक्तिसूत्र और नीतिसूत्र तैयार कर सके. आज हजारों-लाखों वर्षों बाद भी नारद जी का चरित्र हमारे लिये आदर्श है. तकनीकी विकास के बावजूद आज के मीडियाकर्मियों के लिये मार्गदर्शक भी हैं.

Wednesday, May 14, 2014

भगवान बुद्ध का कल्याणकारी धम्म

भगवान बुद्ध का कल्याणकारी धम्म

वैशाख पूर्णिमा, यह भगवान गौतम बुद्ध का जन्मदिन है. पूरे देश तथा विश्व में बहुत से स्थानों पर भगवान की जयंती अत्यंत श्रद्धापूर्वक और भक्तिभाव से मनायी जाती है. भगवान के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा है ‘उनके जैसा महान मानव विश्व में कहीं अन्य नहीं हुआ है. मानव जाति दु:ख से मुक्त कैसे हो सकती है, यह एक ही ध्यास उनको था.’
मानव को सुखी बनाने का ज्ञान अर्थात संबोधि प्राप्त होने के बाद वे प्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) गये थे. यह स्थान काशी के निकट है. साधनाकाल में उनके साथ पांच भिक्षु थे. कुछ कारणवश वे गौतम बुद्ध को छोड़कर चले गये थे. भगवान ने इन्हीं पांच भिक्षुओं को प्रथम धम्मोपदेश किया और उनको बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी. इसे प्रथम धम्मचक्रपरिवर्तन कहा जाता है. ज्ञानप्राप्ति के बाद भगवान अकेले थे. अब उनको पांच भिक्षु मिल जाने के बाद छह व्यक्ति हो गये. उनके इस संघ में यश नामक संपन्न परिवार का एक सदस्य अपने 54 मित्रों के साथ शामिल हो गया. अब संख्या साठ हो गयी. आगे जैसे-जैसे भगवान देश में भ्रमण करने लगे वैसे- वैसे संघ की संख्या बढ़ती चली गयी और संघ में लाख से अधिक लोग शामिल हो गये.
भगवान गौतम बुद्ध प्राचीन काल में शास्त्रशुद्ध संगठन की नींव रखने वाले महान संघसंस्थापक हैं. आज के अर्थशास्त्रीय जगत में व्यापार/औद्योगिक संगठनशास्त्र का स्वतंत्र अध्ययन किया जाता है. उसमें पढ़ाये जाने वाले बहुतांश मूलतत्व भगवान के संगठनशास्त्र विचार में पाये जाते हैं.
चिरस्थायी और बलवान संगठन खड़ा करने के लिये मजबूत आधार आवश्यक होता है. ऐसा आधार संगठन खड़ा करने वाले व्यक्ति ने स्वयं तथा स्वयं के दर्शन का देना आवश्यक होता है. संबोधि प्राप्त होने के बाद ‘सिद्धार्थ’ इस व्यक्ति का विलोप हो गया  और बुद्ध का जन्म हो गया. बुद्ध अर्थात परम ज्ञानी एवं जिसने इसी जन्म में निर्वाण प्राप्त किया. भगवान एक स्थान पर कहते हैं, ‘यो धम्मं पस्सति, यो मं पस्सति सो धम्मं पस्सति’ अर्थात जो धम्म को देखता है, वह मुझे देखता है और जो मुझे देखता है (जानता है) वह धम्म को जानता है. अपने जीवन में गौतम बुद्ध स्वयं संघमय बन गये थे.
भगवान का संघ केवल भिक्षुओं तक ही सीमित था; गृहस्थाश्रमी व्यक्ति को संघ में प्रवेश नहीं था. पुरुषों का संघ अलग और महिलाओं का भिक्षुणि संघ अलग होता था. संघ में महिलाओं को प्रवेश नहीं देना चाहिये, ऐसा भगवान का प्राथमिक मत था. लेकिन महाप्रजापति गौतमी (भगवान की दूसरी माता जिन्होंने सिद्धार्थ का सात दिन की शिशुअवस्था से पालन किया था) के आग्रह के कारण भगवान ने महिलाओं को संघ में प्रवेश दिया था.
व्यक्ति और दर्शन (तत्व विचार) यह संगठन का मेरुदंड होता है. संगठन मनुष्यों का होता है और मनुष्य इसी समाज से आते हैं. अपने साथ के विकार, रूढ़ि, अंधविश्वास, जाति, पूर्वधार्मिक संस्कार आदि की गठरी बांध कर लाते हैं. इन सब लोगों को एकत्रित रखने हेतु कुछ नियम बनाना आवश्यक होता है. उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था खड़ी करनी होती है. उनके द्वारा नियमित साधना करवानी होती है. भगवान ने संघनियम कैसे बनाये?
भगवान को उनके जीवनकाल में ही राजाश्रय मिल गया था. समाजमान्यता भी मिल गयी थी. अनगिनत धनवान लोग उनके शिष्य बन गये थे. इसलिये भिक्षुओं को निवास और भोजन आसानी से मिलने लगा. भिक्षु लोगों के घर जाते थे, उनको भिक्षा मिलती थी. दार्शनिक आकर्षण के कारण बहुत लोग भिक्षु बनते थे. लेकिन कुछ चालाक लोग पेट भरने के लिये भी भिक्षु बन जाते थे. कुछ लोग रोगी, नपुंसक, दिवालिये, भागकर आये सैनिक होते थे. भगवान के ध्यान में जब यह बात आयी तब उन्होंने भिक्षु संघ में प्रवेश के नियम कठोर बनाये. रोगी, नपुंसक, दिवालिये और भगोड़े सैनिकों को भिक्षु संघ में प्रवेश से मनाही की जाती थी.
ऐसा कहते हैं कि जब चार लोग एकत्रित आते हैं, तब उनमें कुछ ना कुछ विवाद पैदा होगा ही! गृहस्थाश्रमी व्यक्ति शायद स्वार्थ हेतु से, बड़प्पन के लिये आपस में झगड़ा कर सकते हैं, लेकिन जिन्होंने संसार की मोहमाया का त्याग कर श्रमण धर्म की अथवा संन्यासधर्म की दीक्षा ली है, वह लोग भी अन्यान्य कारण से आपस में झगड़ सकते हैं. संघ में जो मतभेद होते हैं वह अग्नि के छोटे अंगारे के सामान होते हैं. अगर यह अंगारा समय पर नहीं बुझाया गया तो बड़ी आग लगने का खतरा होता है. आपसी झगड़े से अपने देश में संस्थायें कैसे टूटती हैं, यह हम देख रहे हैं. भगवान् के काल में भी भिक्षु संघ में झगड़े होते थे. झगड़े मिटाने की भगवान् की पद्धति लोकतान्त्रिक थी.
वादविवाद के उस समय तीन विषय होते थे :
1-संघ के दर्शन के बारे में विवाद
2-भिक्षु के गैरवर्तन के बारे में विवाद
3-संघ की कार्यपद्धति के बारे में विवाद
विवाद सुलझाने के लिये भगवान् ने एक पद्धति विकसित की थी. विवाद जहाँ उत्पन्न हुआ है वहां के भिक्षुओं को एकत्रित किया जाता था. अर्थात उनकी सभा अथवा बैठक आमंत्रित की जाती थी. विवाद का विषय सभी लोगों के सामने रखा जाता था. किसी भिक्षु पर कोई आरोप होता तो वह सबके सामने रखा जाता था. सबको अपना पक्ष रखने की स्वतंत्रता थी. सामूहिक चर्चा, सोचविचार के बाद निर्णय लिया जाता था. संघ में में पैदा हुई समस्याओं का समाधान करने के लिये सबको कहा जाता था. लोकतंत्र में यही अपेक्षित होता है. अपने संघ में लोकतंत्र लाकर भगवान ने एक आदर्श सबके सामने रखा है.
संघ में झगड़े नहीं होने चाहिये, सभी को आपस में बंधुभाव से प्रेम करना चाहिये, अधिक कुछ बताने की आवश्यकता महसूस नहीं होनी चाहिये और एक दूसरे को एक दूसरे का अंतःकरण जान लेना चाहिये. दूसरे के मन का और उसकी आवश्यकताओं का विचार पहले करना चाहिये, इस बात की ओर भगवान् ध्यान देते थे. भगवान् के जीवनचरित्र से एक प्रसंग यहाँ दे रहा हूँ.
अनिरुद्ध, नन्हिय, किम्बिल ऐसे तीन भिक्षु साथ-साथ रहते थे. उनकी मुलाक़ात होने पर भगवान् ने उनसे पूछा, ‘‘अनिरुद्ध, सब कुछ ठीक चल रहा है ना?’’ ‘‘हाँ, हमारा सब कुछ ठीक चल रहा है.’’ अनिरुद्ध ने कहा.
‘‘आप सब एकता से आनंदपूर्वक पानी और दूध की दोस्ती की तरह आपस में प्रेम से रहते हैं न?’’ हाँ, में जवाब मिलने पर भगवान् ने अनिरुद्ध से दूसरा प्रश्न पूछा, “अनिरुद्ध, आप बड़ी जागृति से आचरण करते हैं क्या?’’
अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘हम तीनों अत्यंत जागृति से आचरण करते हैं. हम तीनों एकसाथ भोजन करते हैं. भोजन करने के बाद अपने बर्तन साफ़ करके उन्हें यथास्थान रखते हैं. हम अकारण संभाषण नहीं करते हैं. हमारे मनोमिलन हो जाने के कारण अधिक बातचीत करने की आवश्यकता ही नहीं रहती है.’’
बारिश के मौसम में सारे भिक्षुओं को विहार में एकसाथ रहना पड़ता था. इसे वर्षावास कहा जाता है. तीन मास किसी वादविवाद के बिना एकसाथ रहना आसान नहीं होता है. कोसल देश के भिक्षुओं ने एक वर्षावास एकसाथ तीन महीने बिताया था. भगवान् से मुलाकात के बाद उन्होंने कहा, ‘‘हमने वर्षावास के दौरान मौन धारण कर लिया था. इसलिये हमारे आपस में झगड़े नहीं हुये और वर्षावास अत्यंत सुख से बीत गया.’’
भगवान् ने कहा, ‘‘आप लोगों ने आलसी मनुष्य की तरह वर्षावास व्यतीत किया है. पशु भी एकदूसरे के साथ बात ना करते हुए सुख से रहते हैं. उसी तरह आपने वर्षावास बिताया है. हे भिक्षु, अकारण मौन धारण नहीं करना चाहिये. इस काल में आत्मपरीक्षण करना चाहिये, आपको देखे हुए, सुने हुए और आशंकायुक्त अपने दोषों की चर्चा करनी चाहिये.’’
भगवान् ने संघ में उत्तम व्यवस्था रखने की पद्धति विकसित की थी. संगठन शास्त्र में व्यवस्थापन शास्त्र को भी उचित महत्व होता है. व्यवस्था लगाने हेतु कार्य का उचित विभाजन आवश्यक होता है. योग्य व्यक्ति पर योग्य कार्य का दायित्व सौंपना आवश्यक होता है. उस व्यक्ति को अपना कार्य तथा अपना दायित्व पूरी तरह से पता होना आवश्यक होता है. नियमों का पठन करने वाले को ‘पातिमोक्स’ कहा जाता था. अन्न का वितरण करने वाले को ‘भुत्तुहेसक’ कहा जाता था.‘नवकार्तिक’ अधिकारी नया निर्माण अथवा पुराने विहारों की दुरुस्ती करने हेतु नियुक्त किया जाता था.
भगवान् का संघकार्य कष्टदायी था. भिक्षुओं को अत्यंत सादगी से रहना पड़ता था. किसी भी तरह से वस्तुओं का संग्रह करने की उनको मनाई थी. वे केवल औषधि संग्रह अर्थात गोमूत्र, घी, माखन, आंवला, हिरडा, शहद और रसोई का तेल इतनी ही चीजें अपने पास रख सकते थे. भिक्षुओं को सतत् प्रवास करना आवश्यक होता था. विहार में बैठे रहने की उनको अनुज्ञा नहीं थी, जनता में जाकर उनको धर्म की जानकारी देना यह उनका प्राथमिक कार्य था.
ऐसा कष्टमय जीवन सब लोग सहन नहीं कर पाते थे और भिक्षु जीवन का त्याग कर वे वापस अपने घर लौट जाते थे. भगवान का एक शिष्य था शोण. भिक्षु होने से पहले वह बहुत धनवान था. भिक्षु पैदल चलते थे, मगर शोण को ऐसे चलने कि आदत नहीं थी. उसके पैरों से खून बहने लगता था. शोण ने ऐसा सोचा कि अब उसे घर लौट जाना ही उचित होगा. धर्म से आचरण करते हुये दानपुण्य से कमाया जा सकता है. जब भगवान को इस बात का पता चला तब उन्होंने कहा, “शोण, वीणा की तार अगर बहुत कसी गई अथवा ढीली रखी गई तो उस वीणा से अच्छा सुर नहीं निकल सकता है. मनुष्य की शक्ति का भी ऐसा ही होता है. इस शक्ति को अत्यंत तनाव में रखना अच्छा नहीं होता है. अगर शक्ति शिथिल छोड़ी जाये तो मनुष्य आलसी और कमजोर बन जाता है. इसलिये प्रत्येक मनुष्य को अपनी शक्ति का मध्यबिंदु ढूँढना आवश्यक होता है. ऐसा करने से ही जीवन सुखमय हो सकता है. 
भगवान का संघकार्य धर्मजागरण और लोगों को सत्य धर्म की जानकारी देना यह था. यह कार्य किसी एक मनुष्य के वश का नहीं था. इसलिये हजारों लोग इस कार्य में जुटे थे. लोगों को नया धर्म बताना आसान नहीं होता है. प्रचलित विचारधारा के विरोध में जब कोई नया विचार बताया जाता है, तब समाज में बड़ी प्रतिक्रिया पैदा हो जाती है. पूर्ण के साथ भगवान का संवाद कुछ इस प्रकार है.
धर्मोपदेश हेतु नये विभाग में जानेवाले पूर्ण को भगवान ने कहा “तू सुनापरत प्रान्त में जा रहा है. वहां के लोग कठोर होते हैं. वे तुझे गाली देंगे, लाठी से मारेंगे, तब तेरे मन में क्या विचार आयेगें?”
पूर्ण कहता है, “उन लोगों ने मुझे केवल गालियां बकी है, लाठी से मारा है; जान से नहीं मार डाला इसलिये वे लोग बड़े दयालु हैं, ऐसा मैं मानूंगा. मेरे मन में उनके विरोध में कोई दुर्भावना नहीं होगी”. भगवान कहते हैं, “ अगर वे लोग तुझे जान से मार डालेंगे तो मरते समय तेरे मन में क्या विचार आयेंगे?”
पूर्ण कहता है, जन्म तो दुखदायी है. मरण भी दुखदायी है. व्याधि भी दुखदायी है. बुढ़ापा दुखदायी है. ऐसा शरीर का सुनापरत के निवासी नाश कर देते हैं तो वे लोग बहुत भले लोग हैं ऐसा मैं सोचूंगा”. समाज का भला करने जब हम निकलते हैं, तब समाज पर क्रोधित नहीं होना चाहिये. समाज अपनी निंदा करता है, हम पर आघात करता है, तो हमें वह सब सहन करना चाहिये.
“अपने संघ में कई अच्छे गुण हैं, संघ में जातिभेद को कोई स्थान नहीं है. वे आगे कहते कहते हैं, “ हे भिक्षु गंगा, जमुना, अचरवती, सरयू जैसी सारी नदियां जब सागर में समा जाती हैं, तब वह अपना-अपना नाम त्याग कर महासागर यह एक ही नाम धारण करती है. उसी तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-यह चार वर्ण तथागत के संघ में जब प्रवेश करते हैं, तब अपना पहला नामगोत्र छोड़कर ‘शाक्यपुत्रीय श्रमण’ इसी एक नाम से पहचाने जाते हैं”.
भगवान के संघ में हिन्दू समाज के सारे व्यक्ति शामिल हुये थे, संघ में जातिभेद नहीं था, उच्चनीचता नहीं थी, वर्णाभिमान नहीं था, सारे लोग एक समान स्तर के माने जाते थे.
भगवान का संघ दीर्घकाल तक चला. संघ में श्रमण, भिक्षु, उपासक, नीतिमान, चारित्र्यसंपन्न, अनासक्त, ज्ञानोपासक, कर्मयोगी जब तक थे, तब तक संघ के आधार से समाज का भी उत्थान हुआ, उत्पादन बढ़ा, व्यापार बढ़ा, कला का विकास हुआ, शास्त्रों का विकास हुआ, शिल्पशास्त्र का विकास हुआ.
भगवान को अत्यंत प्रतिभासंपन्न शिष्य मिले थे.‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ यह मंत्र जपते हुये उन्होंने धर्मजागरण किया और भारत को महान बनाया. धर्म का उत्थान यही भारत को महान बनाने का मार्ग है, ऐसा आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद ने कहा है. धर्म से जीते हुये का मार्ग विचरण करने वाले ही सही मायने में भारत के भाग्यविधाता हैं.
रमेश पतंगे