संघ और व्यक्ति पूजा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझना आसान नहीं है. इसका मुख्य कारण यह है कि संघ वर्तमान में प्रचलित किसी राजनीतिक पार्टी या सामाजिक संस्था या संगठन के ढांचे में नहीं बैठता. कुछ लोगों को लगता हैं कि संघ में तानाशाही पद्धति से काम चलता हैं तो कुछ अन्य लोग यह दावा करते हैं कि संघ में नेतृत्व की पूजा होती हैं. ये दोनों भी सत्य से बिल्कुल परे हैं.
व्यक्ति पूजा नहीं
संघ के संस्थापक ने ऐसी एक कार्यशैली का आविष्कार किया है जो व्यक्ति पूजा से कोसों दूर है. संघ में किसी प्रकार से व्यक्ति केन्द्रित नहीं है. हिन्दू परंपरा के अनुसार उस में “गुरु” का स्थान है. यह “गुरु” संघ का भगवा ध्वज है. यह ध्वज त्याग, पवित्रता, और शौर्य का परिचायक है, जिसके सामने संघ के स्वयंसेवक वर्ष में एक बार अपनी सामर्थ्यानुसार गुरु दक्षिणा करते हैं. किसी व्यक्ति के स्थान का निर्धारण इस बात पर निर्भर नहीं होता कि उसने कितना समर्पण किया है. किसी व्यक्ति का गुणगान करने के लिये संघ में किसी तरह का कोई शब्द नहीं है. रोज की प्रार्थना के बाद प्रत्येक स्वयंसेवक जो जयकारा लगाता हैं वह है भारत माता की जय.
अनुशासन का रहस्य
संघ के भीतर का अनुशासन देख कर लोगों को अक्सर आश्चर्य होता है. जब मैं संघ के प्रवक्ता के नाते दिल्ली में था तब एक विदेशी पत्रकार ने मुझसे संघ के इस अनुशासन के रहस्य के बारे में पूछा. मैंने एक क्षण विचार किया और कहा कि शायद इसका कारण यह है कि संघ के अन्दर अनुशासन भंग करने पर कोई दंडात्मक कार्रवाई करने का प्रावधान नहीं है. मुझे पता नहीं कि मेरे इस उत्तर से वह संतुष्ट हुआ या नहीं लेकिन उसने और सवाल नहीं किये. मुझे स्वयं को भी अपने इस उत्तर पर आश्चर्य हुआ. क्या किसी ने सुना है कि संघ के 85 से अधिक साल के इतिहास में किसी के खिलाफ अनुशासन भंग करने के कारण दंडात्मक कारवाई हुई है? किसी स्वयंसेवक ने कभी अनुशासन भंग किया ही नहीं होगा, ऐसी हम कल्पना कर सकते हैं क्या?
‘अंश’ और ‘सम्पूर्ण’
संघ के विषय में एक और मूलगामी सत्य है. यह संपूर्ण समाज का संगठन है-”अंश” और “संपूर्ण”. इस दोनों शब्दों को ध्यान से समझिये. समाज के अन्दर किसी वर्गविशेष या गुट का संगठन करने हेतु संघ की स्थापना नहीं हुई थी. समाज का एक मिश्रित रूप होता हैं. समाज जीवन की अनेक गतिविधियों के माध्यम से वह अपने आप को अभिव्यक्त करता है. राजनीति ऐसा ही एक क्षेत्र है परन्तु यही एकमात्र है, ऐसा नहीं. शिक्षा, कृषि, व्यापार, उद्योग, धर्म और ऐसे अनेक समाज जीवन के क्षेत्र हैं जिनके माध्यम से समाज अपने आप को अभिव्यक्त करता हैं. संपूर्ण समाज का संगठन यानी समाज जीवन के इन सभी क्षेत्रों का संगठन. इसलिये स्वयंसेवकों को संघ ने विभिन्न क्षेत्रों में जाने की अनुमति दी गई. प्रथम, छात्रों के लिये अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् बनी. इसमें डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से मुलाकात की और संघ से कार्यकर्ता मांगे. उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री नानाजी देशमुख, श्री सुन्दर सिंह भंडारी, श्री कुशाभाऊ ठाकरे और अन्य कार्यकर्ता साथ देने निकले उनके साथ दिया जिन्होंने डॉ. मुखर्जी को भारतीय जनसंघ को बढ़ाने में सहायता की. संघ के एक और प्रमुख प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी को मजदूर क्षेत्र में कार्य करने की इच्छा हुई तो उनको मजदूर क्षेत्र में भेजा गया. धर्म के क्षेत्र में स्वयं श्री गुरूजी ने अगुआई कर विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना की लेकिन वह उसके अध्यक्ष नहीं बने. कहीं सामाजिक सेवा के क्षेत्र में रुचि रखने वाले लोगों ने समाज उत्थान के प्रकल्प शुरू किये और बाद में संघ ने उन्हें कार्यकर्ता दिये, वनवासी कल्याण आश्रम ऐसा ही एक प्रकल्प है.
मैं बलपूर्वक कहना चाहता हूं कि राजनीति यद्यपि समाज जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं फिर भी वही सब कुछ नहीं है. इसलिये संघ की तुलना किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं हो सकती. संघ का हमेशा यह आग्रह रहता है कि हम एक सांस्कृतिक राष्ट्र हैं और स्वयंसेवकों को जिस किसी भी क्षेत्र में वे कार्य करते हैं, यह भूलना नहीं चाहिये और उनके सब प्रयास इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को शक्तिशाली और महिमामंडित करने की दिशा में ही होने चाहिये इस संस्कृति का ऐतिहासिक नाम हिन्दू हैं.
धर्म और ‘रिलीजन’
हिन्दू यह इस्लाम या ईसाइयत जैसा “रिलीजन” नहीं है. डाक्टर राधाकृष्णन ने भी कहा है कि हिन्दू “रिलीजन” नहीं है, वह तो अनेक रिलीजनों का मंडल समुच्चय है. मैं इसमें यह जोड़ना चाहता हूँ कि हिन्दू धर्म का नाम है और धर्म की व्याख्या बहुत व्यापक है. अंग्रेजी भाषा में धर्म का समान अर्थ विशद करने वाला योग्य प्रतिशब्द नहीं हैं. परन्तु हमें यह समझना चाहिये कि धर्म रिलीजन नहीं हैं. रिलीजन धर्म का एक हिस्सा हैं. हमारी भाषा के कुछ शब्द देखिये जैसे धर्मशाला-क्या धर्मशाला रिलीजियस स्कूल है? धर्मार्थ अस्पताल यानी रिलीजन का अस्पताल होता है क्या? या धर्मकांटा यह रिलीजन का वजन करने का तराजू है क्या? यह धर्म हमारी संस्कृति का आधार है और संस्कृति यानी हमारी मूल्य व्यवस्था है. इस मूल्य व्यवस्था के लक्षण हैं श्रद्घा, विचार, और विश्वास इनकी विविधताओं का आदर करना़ अत: हिन्दुइज्म या हिंदुत्व एक विशाल छाते जैसा है जो अनेक श्राद्घों को, विश्वासों को आश्रय देता है.
स्वतंत्र और स्वायत्त
मुझे लगता है मैं कुछ भटक गया हूँ. अपने समाज जीवन की विविधताओं के बारे में मुझे इतना कहना है कि जिस क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवक गये वह प्रत्येक क्षेत्र स्वतंत्र और स्वायत्त है. इन क्षेत्रों की अपनी व्यवस्था हैं, आर्थिक दृष्टि से स्वयंपूर्ण होने की इनकी अलग-अलग पद्धति हैं, और कार्य करने की उनकी अपनी शैली हैं. इन सबमें संघ कभी उलझता नहीं लेकिन मार्गदर्शन जरूर देता है. इन संगठनों के प्रतिनिधि संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में आमंत्रित किये जाते हैं जहाँ वे चर्चा में सहभागी होते हैं और उनके संगठन के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी देते हैं.
विवादित प्रश्न
श्री हरतोष सिंह बल ने जो विवादित प्रश्न उपस्थित किया है भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की व्यक्ति पूजा जिस प्रकार से स्वीकारी है उसे संघ ने कैसे मान लिया? उस को मेरा उत्तर यह है कि चुनाव एक विशेष आयोजन है. मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु किसी एक प्रतीक की आवश्यकता होती है. श्री नरेन्द्रभाई ने उसको पूरा किया है. यह प्रतीक फायदेमंद साबित हुआ है. कितने प्रतिष्ठित लोग भाजपा में शामिल हुये हैं. उनमें पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह, पत्रकार एम.जे. अकबर, और भी अनेक हैं. इसके लिये श्रेय अगर देना है तो बड़े दिल से श्री नरेन्द्र भाई को देना होगा. लेकिन यह भी हमें समझना चाहिये कि नरेन्द्र भाई को इस प्रतीकात्मक की मर्यादाओं का ध्यान है. वे संघ के प्रचारक रहे हैं और संघ की संस्कृति के मूल को समझते हैं और उससे वाकिफ भी हैं. वे प्रतिभाशाली नेता हैं और शाश्वत, समयानुकूल और आपद्घर्म क्या होता है और इनमें क्या अंतर हैं यह वे जानते है.
परिशिष्ट
कारवां मासिक पत्रिका के संपादक महोदय ने मुझे एक प्रश्न भेजा, वह इस प्रकार है कि वाजपेयी जी के नेतृत्व में व्यक्ति पूजा के बिना भाजपा ने चुनाव जीते थे फिर अब क्यों इस प्रकार से व्यक्ति-केन्द्रित प्रचार अभियान नरेन्द्र मोदी को केन्द्रित कर चलाया जा रहा है?
मेरा जवाब था-मैंने मूल लेख में यह स्पष्ट किया है कि चुनाव एक विशेष प्रसंग होता है- मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु किसी प्रतीक की आवश्यकता होती है. उस समय वाजपेयी जी को भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया गया था. श्री आडवाणी जी के साथ भी ऐसा ही हुआ था. फिर भी वाजपेयी जी की लोकप्रियता इतनी थी कि उनके लिये किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता ही नहीं थी. मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में वे विदेश मंत्री थे. भाजपा के वे संस्थापक अध्यक्ष थे. लोकसभा में अनेक वर्षों तक विपक्ष के नेता और राजनीति के केंद्र बिंदु रहे. मोदी जी का कार्यक्षेत्र अभी तक गुजरात ही रहा है. वे अभी भी वहां के मुख्यमंत्री हैं. केन्द्रीय स्तर पर भाजपा ने चुनाव की घोषणा के पहले उनको अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया. आपका संकेत अगर अभी के शोरगुल की और है तो इसके लिये मुझे व्यक्तिश: ऐसा लगता है कि देश का मीडिया जिम्मेदार है. इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि किसी प्रकार की व्यक्ति पूजा का शोर मचाया जा रहा है या इस प्रकार का कोई प्रयास हो रहा है.
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मा.गो.वैद्य
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