Tuesday, July 04, 2017

संस्कृति और अर्थनीति के समन्वय से भारत पुनः बन सकता है सोने की चिड़िया – डॉ. महेश चंद्र शर्मा

संस्कृति और अर्थनीति के समन्वय से भारत पुनः बन सकता है सोने की चिड़िया – डॉ. महेश चंद्र शर्मा

नई दिल्ली. भाऊराव देवरस सेवा न्यास द्वारा एनडीएमसी कन्वेंशन सेंटर, संसद मार्ग में 24वां भाऊराव देवरस स्मृति व्याख्यान ‘संस्कृति और अर्थनीति के संगम की उभरती विकास ज्ञान परंपरा’ विषय पर आयोजित किया गया.
मुख्य वक्ता पूर्व राज्यसभा सांसद एवं एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान विकास संस्थान के अध्यक्ष डॉ. महेश चंद्र शर्मा जी ने कहा कि संस्कृति की व्यापक अवधारणा है, जिसमें सब कुछ समाहित है. विकास की पश्चिमी ज्ञान परंपरा ने मुखर घोषणा नहीं की थी कि इससे पर्यावरण का ह्रास होगा, किन्तु मौन घोषणा अवश्य की थी. विकास को मापने के मानक पश्चिम में मानवीय नहीं हैं. जिससे औद्योगिक क्रांति का लक्ष्य मनुष्य के समग्र विकास के स्थान पर औपनिवेशिक देशों के नागरिकों को बाजार बनाना बन गया. वास्तव में हम पश्चिम की जिस अर्थनीति पर पिछले कई दशकों से चले, वह संस्कारों से रिक्त और विकारों से युक्त है. पूर्व में उनके साम्राज्यवादी प्रभुत्व के कारण देश और दुनिया में आर्थिक असंतुलन पैदा हुआ. उन्होंने कहा कि दुनिया में केवल भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ संस्कृति और अर्थनीति का संगम देखा गया है. हम सामूहिक जीवन और सबके लिए जीते हैं, केवल अपने लिए नहीं. महाराजा अग्रसेन ने सहकार से व्यापर करना सिखाया, भारत की इस आर्थिक परंपरा के परिणामस्वरूप भारत ने दुनिया से प्रमाणपत्र पाए कि ‘भारत सोने की चिड़िया है’, ‘भारत में दूध-दही की नदियाँ बहती हैं’.
उन्होंने चिंता प्रकट करते हुए कहा कि बेरोजगारी आज विश्वव्यापक समस्या है. लेकिन पूर्व काल में भारत में बेरोजगारी की स्थिति की कल्पना तक नहीं थी. बेरोजगारी शब्द पर्शियन का है, इसका अंग्रेजी अनुवाद है, अन-एम्प्लॉयमेंट. हिंदी तथा भारत की किसी भाषा में इसके लिए कोई शब्द नहीं है. क्योंकि जिस तरह प्रकृति द्वारा नवजात बच्चे के लिए मां के दूध की व्यवस्था रहती है, वैसे ही भारतीय परंपरा में ऐसा कोई घर नहीं है जो उत्पादन, सेवा या शिल्प का केंद्र न रहा हो. यह व्यवस्था यूरोपीय साम्राज्य के यहाँ आने के कारण बिगड़ी. उससे पूर्व भारत आयात निर्भर देश नहीं था, निर्यातक देश था. विडंबना है कि आजादी के 70 साल बाद भी भारत आयात निर्भर देश है. इसको दुरस्त करने के लिए पं. दीनदयाल जी के कथन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि स्वदेशी और विकेंद्रीकरण को मन्त्रवत स्वीकार करना चाहिए.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी जी ने भाऊराव देवरस को श्रद्धांजलि देते हुए आपात काल के दौरान उनके साथ अपनी स्मृतियाँ साझा कीं. भाऊराव देवरस दिए गए प्रत्येक कार्य व विषय पर स्पष्ट दृष्टिकोण रखते थे. संस्कृति और अर्थनीति के संगम की उभरती विकास ज्ञान परंपरा के विषय पर उन्होंने कहा कि दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ वास्तविक सुख और मानसिक शांति मिलती है. जिसे तलाशने अमेरिका व पश्चिम के सर्वाधिक अर्थ संपन्न लोग भारत के आश्रमों में दिनचर्या व यहाँ के अनुशासन का पालन कर रहे हैं. भारत में 800 वर्ष की विदेशी परतंत्रता के बाद भी हिन्दू संस्कृति बची रही. यूनेस्को द्वारा तैयार प्राचीन संस्कृति की सूची में एकमात्र हिन्दू संस्कृति ही है जो आज भी उसी स्वरुप में कायम है. दूसरी ओर विश्व में मेसोपोटामिया, बेबीलोन की संस्कृति इस्लामी आक्रमण के 20-21 वर्षों में ही इस्लाम में परिवर्तित हो गयी. यूरोप में 100 साल में ही पूर्ण रूप से ईसाईकरण हो गया. भारत में संस्कृति व अर्थ प्रणाली में बेहतर समन्वय के कारण ही हिन्दू धर्म बचा रहा. यहाँ धर्म, अर्थ और सत्ता विकेन्द्रीकृत थे. ज्ञान, शस्त्र, धन और भूमि के आधार पर सभी के कार्य बंटे हुए थे, लेकिन यह जन्म आधारित नहीं था. ज्ञानी व्यक्ति के पास समाज को शिक्षित करने के लिए कार्य था. भिक्षाटन व अनुशाषित साधारण जीवन के कारण उसे समाज में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त था. बाद में विदेशी आक्रमणों के कारण यह जन्माधारित हो गया और जातिगत कुरीतियों ने जन्म लिया. इस अवसर पर पर भाऊराव देवरस जी के जीवन पर एक वृत्तचित्र का भी प्रदर्शन किया गया.

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