मुस्लिम नेताओं के इसी रवैए ने भारत की राजनीति को बारंबार बदनाम किया है।
महात्मा गांधी ने मौलाना शौकत अली और मोहम्मद अली के `खिलाफत आंदोलन´ को समर्थन देने के लिए कांग्रेस नेतृत्व की पूरी राष्ट्रवादी धारा से विरोध मोल ले लिया। जब महात्मा गांधी को अली बंधुओं के मदद की दरकार हुई तो अली बंधुओं ने बयान दिया कि `दुनिया का सबसे गया गुजरा मुसलमान भी हमारी नजरों में गांधी से बेहतर इंसान होगा।´ महात्मा गांधी ने कांग्रेस के मंचों पर मुस्लिम लीग के अधिवेशन कराए जाने की छूट दी। मुस्लिम नेताओं द्वारा उस समय बारंबार `वंदे मातरम´ के बेजा विरोध को बर्दाश्त किया। मुस्लिम लीग के जो नेता महात्मा गांधी से प्रश्रय प्रात कर बड़े हुए उन्हीं लोगों ने मौका आने पर कांग्रेस की नीतियों को `मुसलमान विरोधी´, `हिन्दूवादी´ तथा `हिन्दू प्रचारक´ कहने में देरी नहीं की। 20 मार्च 1938 को राजा सैयद मोहम्मद मेंहदी की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग की एक नौ सदस्यों वाली कमेटी बनी थी जिसका नाम `पीरपुर कमेटी´ दिया गया था। इस `पीरपुर कमेटी´ में सात सदस्य किसी न किसी समय महात्मा गांधी के कृपापात्र थे। इस कमेटी ने मुस्लिम लीग के जिए अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना को अपनी रिपोर्ट सौंपी, उन जिन्ना को गोपाल कृष्ण गोखले, पं. मोतीलाल नेहरू और सरोजिनी नायडू जैसे लोग प्रखर राष्ट्रवादी और आत्मा से सेकुलर होने का प्रशस्तिपत्र दे चुके थे। `पीरपुर कमेटी´ ने 71 वर्ष पूर्व जिन बिन्दुओं पर मुसलमानों पर अत्याचार की बात उठाई थी, आज अगर कोई आजम खान समिति बनाई जाए तो वह भी इन्हीं बिन्दुओं को रेखांकित करेगी। `पीरपुर कमेटी´ ने मुस्लिम उत्पीड़न के जो बिन्दु रेखांकित किए थे उन्हें देखें- 1. कांग्रेस की सामान्य नीति, 2. वंदेमातरम, 3. तिरंगा झंडा, 4. स्थानीय निकायों में मुसलमानों की गैरमौजूदगी, 5. गौरक्षा, 6. सांप्रदायिक दंगे (कारण और बीज), 7. भाषा और संस्कृति। `पीरपुर कमेटी´ से जस्टिस सच्चर आयोग तक मुसलमानों की व्यथा वही पुरानी है। इस बीच मुसलमान पाकिस्तान और बांग्लादेश नामक दो राष्ट्र पा चुके हैं और तीसरे में भी उन्हें असंतोष है। बंगाल के मुख्यमंत्री फजलुल हक ने दिसंबर 1939 में मुस्लिमों की प्रताड़ना की दूसरी रिपोर्ट दी थी। इस रिपोर्ट के समापन में फजलुल हक ने लिखा- `कांग्रेसी शासन के अत्याचार में मुसलमान आतंक और कष्ट में जीने के लिए विवश हैं। कातिल को लटका देने से मकतूल को जिंदगी वापस नहीं मिल जाती।´
आज भी आप कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला या मुफ्ती मोहम्मद सईद से कोई भी रिपोर्ट मुस्लिम समस्या पर लिखाएं, आप उनकी भाषा फजलुल हक की भाषा से अलग नहीं पाएंगे। मुस्लिम नेताओं को हिन्दू नेता चाहे कितना प्रश्रय दें जिस दिन उनका कोई स्वार्थ टकराता है उनकी पहली बांग `सांप्रदायिकता´ की होती है। कल लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बनें और मुख्तार अब्बास नकवी या शाहनवाज हुसैन को कोई पद न दें, आप पाइएगा दोनों की भाषा अब्दुल रहमान अंतुले, आजम खान या मौलाना मदनी से कम कड़ी नहीं होगी। छह दशक पहले मुस्लिम राजनीति की इस प्रवृत्ति का स्वाद सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी सहना पड़ा था। उर्दू के प्रख्यात शायर हुए हैं जोश मलीहाबादी। उनके बारे में मुस्लिम विद्वान रफीक जकरिया ने जो लिखा है वह गिरगिट प्रवृत्ति की चीरफाड़ है- `सरदार पटेल के अधीन प्रकाशन विभाग था। सरदार पाकिस्तान की सर्वश्रेष्ठ उर्दू पत्रिका को टक्कर देने की क्षमतावाली एक उर्दू पत्रिका भारत सरकार द्वारा प्रकाशित कराना चाहते थे। सरदार पटेल के इसी विचार से जन्म हुआ था उर्दू मासिक `आजकल´ का, जिसने अपने पहले ही अंक से उर्दू पत्रकारिता में अपना अद्वितीय स्थान बना लिया। इसका श्रेय उर्दू के प्रख्यात शायर जोश मलीहाबादी को दिया जाना चाहिए जिन्हें इस पत्रिका का प्रथम संपादक नियुक्त किया गया था। उनकी नियुक्ति के प्रस्ताव ने अधिकारियों के बीच काफी विवाद खड़ा कर दिया था। उनका नाम पटेल को यूपी की तत्कालीन राज्यपाल सरोजिनी नायडू ने सुझाया था। पटेल के निजी सचिव वी. शंकर भी उर्दू के ज्ञाता थे। उन्होंने जोश के नाम का अनुमोदन किया था। आरोप लगाया गया था कि राष्ट्रवादी चोगे में जोश वस्तुत: साम्यवादी हैं। हर कोई जानता था कि पटेल साम्यवादियों के विरोधी थे। जोश के खिलाफ यह शिकायत भी की गई कि उन्हें शराब का बहुत शौक है। दूसरी ओर थी जोश की राष्ट्रवादी पृष्ठभूमि, राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत उनकी कविताएं। उनकी रचनाओं में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग थी, इसीलिए उन्ेहं `विद्रोह का शायर´ कहा जाता था।
सरदार ने शंकर से जोश की कुछ रचनाएं सुनाने के लिए कहा और उन्हें सुनकर वे इतने प्रभावित हुए कि उसी वक्त जोश की नियुक्ति के आदेश दे दिए। विभाग के सचिव एन.सी. मेहता इस आदेश को महीनों तक दबाए रहे। एक दिन सरदार ने अचानक शंकर से पूछा कि जोश ने पत्रिका का काम शुरू कर दिया है अथवा नहीं? जांच करने पर पता चला कि मेहता ने आदेश ही नहीं जारी किए थे। पटेल गुस्से से लाल-पीले हो गए और उन्होंने मेहता को फटकारा। कोई अफसरशाह पटेल के आदेशों की अवहेलना नहीं कर सकता था। मेहता ने ऐसा किया और उन्हें इसका फल भुगतना पड़ा। जोश को नौकरी मिल गई और मेहता को हिमाचल प्रदेश भेज दिया गया। जोश आभार व्यक्त करने के लिए सरदार के पास गए तो उप प्रधानमंत्री ने उन्हें बताया कि उनकी राष्ट्रवादी भावनाओं के वे कितने प्रशंसक हैं। उन्होंने जोश को आश्वासन दिया कि सरकार उर्दू की हरसंभव सहायता करेगी। उन्होंने अपेक्षा व्यक्त की कि पत्रिका में स्वतंत्रता की नई लहर प्रतिबिंबित होनी चाहिए। पत्रिका की सामग्री सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने वाली और हिंदी-उर्दू के संबंधों को दृढ़ बनाने वाली होनी चाहिए। उसका स्तर उच्च साहित्यिक होना चाहिए। जोश ने सफलतापूर्वक लगभग एक दशक तक `आजकल´ निकाला। उन्हें पारिश्रमिक भी अच्छा खासा मिला, वे स्थापित भी हुए और प्रसन्न भी। फिर अचानक अपने मित्रों और सहयोगियों को आश्चर्यचकित करते हुए पाकिस्तान चले गए। उनके एक प्रशंसक सिकंदर मिर्जा उन दिनों पाकिस्तान के मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक थे। मिर्जा ने जोश को आर्थिक लाभ का लालच दिया। चांदी के चंद टुकड़ों के लिए बहुतों का प्यारा भारतीय मुसलमान अपना वतन छोड़ गया। जोश ने सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाई थी। मिर्जा के पतन के बाद पाकिस्तान में जोश को गद्दार कहकर सार्वजनिक रूप से दुत्कारा गया। कई बार उन्होंने भारत लौटने की कोशिश की।
जिन जोश को भारत सरकार ने `पदमभूषण´ से नवाजा था, जिन्होंने भारत के प्रधानमंत्री से दोस्ती का सम्मान पाया था, वे जोश एक सुबह `पाक धरती´ की ओर भाग गए। वहां उन्हें रिक्शा चलाने के लाइसेंस मिले, कुछ सिनेमाघरों में हिस्सेदारी मिली और शासकों के कशीदे काढ़ने के लिए मोटी रकम। जब शासक हटे तो जोश दुत्कारे गए। उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और भारत लौटने की कोशिश शुरू की। तब स्वर्गीय मौलाना आजाद अड़ गए, वे एक ही शर्त पर जोश के भारत लौटने पर सहमत थे कि लौटने पर उसे जेल में रखा जाए।´ जोश की इस गद्दारी का उपयुZक्त वर्णन रफीक जकरिया ने किया है, सो उनकी बातों पर आजम खान को भी भरोसा करना चाहिए। जोश ने अपनी आत्मकथा `यादों की बारात´ में सरदार पटेल के बारे में लिखा है- `सरदार का चेहरा मुजरिमों जैसा था।´ सरदार के प्रति नमकहरामी करने वाले जोश पाकिस्तान में बहुत दयनीय स्थिति में जिए। अधिकांश समय वे नशे में धुत रहते थे और जब वे मरे तो पाकिस्तान ने न कोई सम्मान दिया, न प्रशस्ति पत्र। सरदार के साथ जो हरकत जोश ने की वही हरकत मुलायम के साथ दर्जनों मुस्लिम नेता कर चुके हैं। गांधी परिवार को भी मुस्लिम नेता सबक सिखाते रहे हैं। लालू भी बारंबार मुस्लिम नेताओं शहाबुद्दीन-तस्लीमुद्दीन से हैरान-परेशान रहते हैं। आजम खान भी उसी राह पर हैं। जब इन मुस्लिम नेताओं का स्वार्थ नहीं सधता तो इस्लाम खतरे में आ जाता है। हम मुसलमानों के विरोधी नहीं है। हमारा विरोध इस्लाम को खतरे में डालने वाले मुस्लिम नेताओं से है।
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