Monday, August 24, 2009

Church

चर्च सूत्रों की माने तो डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार जल्द ही भारतीय चर्च नेताओं को खुशखबरी देने वाली है। सूत्रों के मुताबिक कानून व न्याय मंत्री वीरप्पा मोईली अनुसूचित जातियों संबधी सवैंधानिक आदेश 1950 को चुनौती देने वाला आदेश जारी करने की तैयारी कर रहे है।
इसी आदेश के अधार पर अनुसूचित जातियों से ईसाइयत में मंतातंरित हुए करोड़ों लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा नही मिल पाया। इस आदेश में केवल हिन्दू मूल के दलितों को ही यह दर्जा प्राप्त है। चर्च नेतृत्व दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल करवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सरकार पर दबाव बनवाता रहा है विगत माह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस.राजशेखर रेड्डी ने दिल्ली स्थित कांग्रेस मुखायल्य में चर्च की इस मांग का समर्थन करते हुए सरकार से मांग की थी कि वह जल्द इस मामले में 1950 के सवैंधानिक आदेश में बदलाव करे। सूत्रों के मुताबिक संप्रग की सभापति श्रीमती सोनिया गांधी चर्च नेतृत्व की इस मांग पर पूरी तरह सहमत है।

जस्टिस रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय,भाषायी और अल्पसंख्यक आयोग ने अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को अनुसूचित जाति के दर्जे के दायरे में लाने का सुझाव दिया है। इस आयोग का गठन भारत सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सुझाव पर किया था जो दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने को लेकर एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रहा था जिसे कुछ चर्च समर्थक लोगों एवं संगठनों द्वारा दायर किया गया है। चर्च नेतृत्व करोड़ो दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करवाने के लिए लम्बे समय से प्रयासरत है, उसका तर्क है कि धर्म बदल लेने से सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता इस कारण जिन हिन्दू दलितों ने ईसाई धर्म को अंगीकार किया है वे आज भी हिन्दू दलितों के समान ही अपना जीवन जी रहे है। अत: दलित ईसाइयों को भी अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल कर लिया जाए। जस्टिस रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय,भाषायी और अल्पसंख्यक आयोग ने इसके पक्ष में सिफारिश करके चर्च नेतृत्व की मुराद पूरी कर दी थी।

आयोग की एक सदस्य आशा दास ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि कोई संसद या न्यायालय धार्मिक प्रथाओं में बदलाव नहीं कर सकता यह बदलाव इन वर्गो को खुद अपने अंदर से करने होगें। आशा दास की यह टिप्पणी चर्च नेतृत्व के असली चेहरे को उजागर करती है, चर्च नेतृत्व ने वंचित वर्गो के बीच अपना अधार ही इस प्रलोभन के तहत बढ़ाया कि ईसाइयत के बीच जाति भेदभाव नहीं है और ईसाई धर्म के बीच दलितों से मत परिवर्तित करके ईसाइयत अपनाने वाले लोगों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा। ईसाई समाज में समानता के इस स्थान की झूठी आशा में ही दलितों ने ईसाई धर्म अपनाया यदि आज भी वे दलित है तो सवाल यह उठता है कि अब उनका शोषण-उत्पीड़न कौन कर रहा है?
यह सच है कि जब वे हिन्दू समाज में थे, तो जाति प्रथा के शिकार थे लेकिन क्या ईश्वर के समक्ष की गई यह प्रतिज्ञा नही थी कि इन्हें (धर्मातंरित ईसाइयों को) बिना किसी भेदभाव के मसीही प्रेम का भागीदार बनाया जायेगा। संविधान निर्माताओं ने जब दलितों के लिए आरक्षण उपलब्ध करवाया तो हिन्दुओं, जो कि बहुसंख्यक थे, ने दलितों के आरक्षण को सिद्वांत रुप में स्वीकार किया। संविधान में समानता के अवसर को उन्होंने दलितों के पक्ष में कुर्बान कर दिया उसे बुरे व्यवहार और भेदभाव के मुआवजे के रुप में, जो उनके पूर्वजों ने दलितों से किया था। यहां यह कहना जरुरी है कि अमेरिका के गौरे ईसाइयों द्वारा काले ईसाइयों के प्रति इस प्रकार की उदारतापूर्ण नीति अपनाने से साफ इन्कार कर दिया था। ईसाई समाज में दलितों का होना और उनकी भरपाई की पूरी जिम्मेदारी चर्च नेतृत्व की है क्योंकि ईसाई समाज में सामाजिक भेदभाव उसी की देन है। दलित ईसाइयों के संगठन `पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट´ का मानना है कि यदि चर्च की पूरी शक्ति दलित ईसाइयों के पीछे लगा दी जाए तो उनके सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। धर्म परिवर्तन के नाम पर विदेशों से भेजी जा रही आकूत धनराशि का सदउपयोग यदि उनके विकास पर खर्च किया जाए तो उनके जीवन में परिवर्तन लाया जा सकता है, किन्तु सत्य कुछ और ही है। चर्च केवल अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के उद्येश्य को ही सर्वोपरि रखता है। जस्टिस रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय,भाषायी और अल्पसंख्यक आयोग की सिफारशों को अगर सरकार मानकर `दलित ईसाइयों´ को अनुसूचित जाति की सूचि में शामिल कर भी लेती है तो उसका लाभ चर्च नेतृत्व को ही होगा। देश में पहले से जारी धर्मपरिवर्तन के कार्य में बहुत तेजी आएगी। अगर ऐसा हुआ तो देश में अनावश्यक तनाव भी बढ़ेगा। जैसाकि उड़ीसा के कंधमाल में पिछले वर्ष हुए दंगों की जांच करने वाले आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एस.सी. मोहपात्रा ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कहा है।

चर्च नेतृत्व दलित ईसाइयों के साथ दोहरा खेल खेलता रहा है एक तरफ वह हिन्दु दलितों को हिन्दु समाज में फैली कुरितियों, छुआछात, उत्पीड़न, भेदभाव आदि का भय एवं प्रलोभन दिखाकर अपने पाले में लाता रहा है दूसरी तरफ वह पुन: उन्हें हिन्दु दलितों की सूचि में शामिल करवाने के लिए हर हथकंडा अपना रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि जो करोड़ों दलित अपनी सरकारी सुविधाएं छोड़कर समानता की तलाश में चर्च के नेतृत्व के साथ खड़े हुए है, वह चर्च संस्थानों एवं चर्च के अन्य संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी की भी मांग कर रहे है। क्योंकि चर्च नेतृत्व उनके साथ हर क्षेत्र भेदभाव कर रहा है। कई सरकारी समितिओं और आयोगों की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि धर्मातंरित ईसाइयों की स्थिति हिन्दु दलितों से ज्यादा खराब है। समाज के अलावा चर्च संगठनों में भी वह छुआछात जैसी बुराई का शिकार है। उनकी मौजूदा स्थिति के लिए भारतीय चर्च नेतृत्व ही जिम्मेदार है। चर्च नेतृत्व ने उनके साथ विश्वासघात किया है, उनकी आस्था से बलात्कार किया है। `पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट´ ने वैटिकन एवं भारतीय चर्च नेतृत्व से दलित ईसाइयों को मुआवजा देने की मांग की है।

हजारों स्कूलों, कॉलजों एवं अन्य संस्थानों का संचालन करने, गरीबों के विकास के नाम पर विदेशों से हजारों करोड़ विदेशी अनुदान लेने वाले चर्च नेतृत्व के अनुयायी इतनी दयनीय स्थिति में क्यों है इसका जवाब चर्च नेतृत्व को देना होगा अपनी स्वार्थपूर्ण नीति एवं असफलताओं का ठीकरा वह दूसरों के सिर फोड़कर बड़ी बेशर्मी से वाद-विवाद कर रहा है। हालहि में भारत सरकार द्वारा जारी एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा निराक्षरता, बेरोजगारी एवं गरीबी ईसाई समाज के अंदर है। चर्च नेतृत्व का योगदान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा माना जाता है देश की 25 प्रतिशत शिक्षा ढांचे पर चर्च का कब्जा है इसके बावजूद शहरी क्षेत्रों में 15 प्रतिशत एवं ग्रामीण क्षेत्रों में 40 प्रतिशत दलित ईसाई बच्चे अशिक्षित है, क्या चर्च की इस मामले में कोई जबावदेही नही बनतीर्षोर्षो इस स्थिति के लिए खुद चर्च नेतृत्व जिम्मेवार है। ईसाई संस्थानों में दलित ईसाइयों की भगीदारी कितनी है जहॉ वह चर्च के मामलों में स्वत्रत्रं निणर्य ले पाते है,शायद कुछ भी नही। कैथोलिक बिशप्स कांफ्रेस ऑफ इंडिया के 160 बिशपों में कितने दलित हैर्षोर्षो पन्द्रह हजार पादरियों में कितने दलित है,शायद एक हजार भी नहीं। कितने दलित पादरी एवं नन ईसाई संस्थानों के प्रमुख है र्षोर्षो इसका ब्यौरा चर्च नेतृत्व समाज के सामने रखे। दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा मिल जाने से ही उन्हें समानता नहीं मिल जाने वाली। अगर सरकार सचमुच दलित ईसाइयों का भला चाहती है तो वह चर्च संगठनों में पारर्शिता लाकर उसके ढांचे में दलित ईसाइयों को उनका वाजिब हक दिलाने की राह पकड़े।

चर्च नेता हर हाल में दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में ही शामिल क्यों करवाना चाहते है इसलिए कि उनके दिल में इन करोड़ों बेबस लोगों के लिए दया का सागर उमड़ आया है। नहीं! असली मकसद है आत्माओं की नई फसल उगाना। चर्च की धर्मातंरण गतिविधियों में सवैंधानिक आदेश 1950 एक बड़ी अड़चन है इसके चलते उसे दलितों में आदिवासी वर्ग की तरह की सफलता नही मिल पाई है। आज दुनिया भर के धर्मप्रचारकों की नजर भारत के 16 करोड़ हिन्दू दलितों पर है। यही कारण है कि एक दूसरे को फूटी आंख न देखने वाले चर्च के तमाम डिनोमिनेशन/ चर्च इस मांग पर एकमत है। भारत सरकार चर्च नेतृत्व के दबाव में एक ऐसा कानून लाने जा रही है जिस से तनाव ही बढ़ेगा।

चर्च नेतृत्व ने पवित्र जल छिड़क कर दलितों को धर्मातंरित किया और अब उन्हीं की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ कर उन्हें सरकार की दया पर हिन्दु दलितों की भाँति छोड़ देना चाहते है। चर्च नेतृत्व ने जाति प्रथा का कोढ़ ईसाई समुदाय पर हावी कर दिया और अब बड़ी बेशर्मी से उसे अपना रहे है। चर्च नेतृत्व दलित ईसाइयों के साथ राजनीति का घिनौना खेल खेल रहा है। क्योंकि वह जानते है कि बहुबल और वोट-बैंक प्रक्रिया द्वारा सामाजिक दुर्भाव पैदा कर सरकार से कुछ भी प्राप्त कर सकते है। इस लड़ाई में वह पैसा भी पानी की तरह बहा रहे है। चर्च नेतृत्व दलित ईसाइयों के साथ वैसा ही घिनौना खेल खेल रहा है जैसा फारिसियों ने लार्ड जीजस के समय खेला। मानव पुत्र इन पर चिल्ला रहा है- हे अंधे मार्गदर्शकों!


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Sanjay Kumar Azad
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