Friday, December 23, 2011

मजबूत लोकपाल कौन चाहता है

मजबूत लोकपाल कौन चाहता है

सरकार ने लोकपाल विधेयक के मसौदे को संसद के पटल पर भले रख दिया है, लेकिन एक सशक्त लोकपाल लागू करने के मामले में खुद उसकी नीयत शुरू से ही शक के घेरे में है। प्रारंभ में लोकपाल ड्राफ्टिंग कमेटी में उसने सिविल सोसाइटी को साथ रखा, लेकिन विपक्ष को भरोसे में नहीं लिया। बाद में वही सरकार सिविल सोसाइटी की कीमत पर विपक्ष को साधने की कोशिश करती रही। और अब लोकपाल जैसी संभावित सांविधानिक संस्था में आरक्षण का प्रावधान केंद्रीय मुद्दा बना दिया गया है। पूछा जा सकता है कि जब चुनाव आयोग, केंद्रीय सतर्कता आयोग और न्यायपालिका जैसी सांविधानिक संस्था में आरक्षण नहीं है, तो लोकपाल में क्यों होना चाहिए?

जिस संस्था के प्रति प्रधानमंत्री तक को जवाबदेह बनाने की बात हो रही है, वहां योग्यता के इतर आधार बनाने का प्रश्न कैसे उठाया जा रहा है। यह भी देखने लायक बात है कि विधेयक पेश करने के अंतिम समय तक संशोधन की सूची लगाई गई, जिसमें अल्पसंख्यक आरक्षण को जोड़ने की बात भी है। कुल जमा संसद के भीतर चार दशक बाद लोकपाल विधेयक पेश तो हो गया, लेकिन बहस की दिशा भ्रष्टाचार के मुद्दे से आरक्षण की ओर मुड़ गई। दृश्य ऐसा है कि विपक्षी पार्टियां इस पर लड़ती रहें और यूपीए के लिए इस गतिरोध का ठीकरा दूसरे पर फोड़ना आसान हो।

विद्रूप देखिए, इस दोहरेपन के बावजूद सोनिया गांधी को आगे कर यूपीए यह जताने की कोशिश कर रहा है कि एक सख्त लोकपाल लागू करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। टीम अन्ना और भाजपा की लाइन एक है, यह तो शुरू से साफ है, लेकिन सीबीआई के मुद्दे पर वह तमाम राजनीतिक दलों से अलग लाइन लेगी, यह इमकान नहीं था।

सबसे दिलचस्प रुख राजद और सपा का है। लालू यादव एक ओर तो सख्त लोकपाल की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ पूर्व सांसदों के खिलाफ कार्रवाई के प्रावधान का विरोध कर रहे हैं! खुद जेपी आंदोलन से पैदा लालू को अब यह कहने में जरा भी झिझक नहीं है कि सरकार रौब से चलती है। वे एक तरफ भाजपा-कांग्रेस की मिलीभगत का आरोप उछाल रहे हैं, तो दूसरी तरफ लालू-मुलायम पर कांग्रेस की मदद का जुमला चल रहा है।

महिला विधेयक पर भी जनता बहसों का ऐसा हाल देख चुकी है। किसी को आशंका है कि लोकपाल आने से दारोगा उन्हें गिरफ्तार कर लेगा, तो किसी को चिंता है कि इसके बाद लोग उनकी इज्जत करना छोड़ देंगे। बार-बार टीम अन्ना को गरियाकर सत्ता की आत्मा शुद्ध हो तो बात अलग है, वरना नीयत के बारे में अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

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