जयपुर (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि व्यक्ति की आकांक्षा होती है कि उसे समानता और प्रेम मिले. इस दिशा में भारत में लोकतांत्रिक तरीके से परिवर्तन हो रहे हैं, लेकिन इसकी गति बढ़नी चाहिए. संविधान हमारे मन को नहीं बदल सकता है. समाज से भेदभाव दूर हो, देश में समरसता आए, इसके लिए हमें ही मिलकर प्रयास करना होगा.
हमारे मोहल्ले में सफाई आदि करने वालों का प्रवेश हमारे घर में है कि नहीं, यह विचार करने की आवश्यकता है. आज में समाचार पढ़ रहा था कि जब डॉ. कलाम राष्ट्रपति बने तो गृह जनपद में उनसे मिलने वालों में सर्वप्रथम उनका मोची आया. इतनी आत्मीयता चाहिए. गांधी जी ने भी सेवा बस्तियों में बच्चों को पढ़ाया. इस दिशा में देश में प्रयत्न चल रहे हैं, लेकिन प्रयत्न और तेज करने की आवश्यकता है. उनके मन की जो वेदना है वो निकलनी चाहिए. भेदभाव जाना ही चाहिए. किसी बारात के दूल्हे को हम उतार देंगे तो उसके मन में जो दुःख बैठेगा, उसको कोई भी संविधान की धारा दूर नहीं कर सकती.
सह सरकार्यवाह जी सोमवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जयपुर द्वारा आयोजित परिसंवाद कार्यक्रम में संबोधित कर रहे थे. परिसंवाद में समाज के प्रबुद्धजनों ने हिस्सा लिया. कार्यक्रम में विजयादशमी के अवसर पर संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के संबोधन पर परिसंवाद हुआ. कार्यक्रम में प्रबुद्धजनों ने समरसता, शिक्षा, जैविक खेती, गौरक्षा सहित अनेक विषयों प्रश्न करते हुए संघ के विचार जाने.
शिक्षा के बारे में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में जवाब में डॉ. कृषाण गोपाल जी ने कहा कि शिक्षक अगली पीढ़ी का निर्माणकर्ता होता है, किन्तु दुर्भाग्य से हमारे में शिक्षक का जो स्थान था, उसका अवमूल्यन हो गया है. शिक्षकों को गहराई तक जाना होगा. शिक्षक बहुत प्रतिष्ठा का स्थान था, लेकिन शिक्षक निरयप्राणी जैसा हो गया. शिक्षक को ध्यान रहे कि मैं अन्तरात्मा के लिए जवाब देय हूं, भारत की महान परम्पराओं के लिए वह जवाबदेह है. वह सरकार के लिए जवाबदेह मात्र नहीं है. उसके सामने देश का भविष्य बैठा है, उसके प्रति समर्पित होता है कि नहीं होता और जो शिक्षक विद्यार्थियों के प्रति समर्पित होता है, उसको आज भी विद्यार्थियों द्वारा मान प्राप्त हो रहा है. आज भी अनेक शिक्षक इस साधना में लगे हुए हैं और उन्हें वो ही सम्मान मिल रहा है. अनेक शिक्षक तो विद्यार्थियों पर अपनी जेब से पैसा खर्च कर उन्हें सहयोग कर रहे हैं. शिक्षक ही विद्यार्थी का मन बदल सकता है. शिक्षा भारत में सदा से यज्ञ पवित्र रही है. भारत में सदैव नि:शुल्क रही, किन्तु अंग्रेजों के आने के बाद इस पर शुल्क पद्धति प्रारंभ हुई, जिससे शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया.
जैविक खेती एवं फूड पर पूछे प्रश्न पर उन्होंने कहा कि जैविक फूड की आवश्यकता पर कहा कि ऑर्गेनिक फूड की आवश्यकता है यह सच बात है. पूरा विश्व इस संकट से ग्रस्त है. लेकिन कहीं से शुरूआत करनी पड़ेगी. छोटे-छोटे ही क्यों न हों, लेकिन चार पांच हजार स्थानों पर प्रयोग चल रहे हैं, लेकिन वो है कि ऑर्गेनिक फूड तो चाहिए, लेकिन पशुधन रखने के लिए कोई तैयार नहीं है. जब गाय, बैल, भैंस नहीं रखेंगे तो ऑर्गेनिक फूड कहां से आएगा. देशभर में कम से कम शारीरिक परिश्रम करके अधिक से अधिक धन कैसे पैदा करें, ये देश में मानसिकता निर्माण हुई. इस मानसिकता से थोड़ा बाहर निकलकर आना पड़ेगा. भारत में पशुधन परिवार का अंग हुआ करता था, पशुओं के दूध, घी आदि से परिवार का पालन होता था. परिवार के लोग भी पशुधन की पूजा किया करते थे. किन्तु आज स्थिति बदल गई है. पशुधन में कमी आई है. जैविक खाद के अभाव में रसायनिक खाद आदि का उपयोग बढ़ा है, जिससे कैंसर जैसे भयानक रोग उत्पन्न हुए. पिछले कुछ वर्षों में देश में जैविक खेती को लेकर पुन:प्रयास शुरू हुए है. संघ द्वारा भी लगभग पांच हजार से अधिक स्थानों पर जैविक खेती के प्रयास प्रारंभ हुए है.
पचास साल में पहली बार जेएनयू को चुनौती
जवाहरलाल नेहरू विवि और कन्हैया पर पूछे गए पश्न पर सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि कन्हैया के विषय में जेएनयू एक्सपोज हो गया. पहली बार पचास साल के अन्दर जेएनयू को चुनौती मिली. ये आनंद की बात है कि पहली बार जेएनयू के पक्ष में देश का कोई विश्वविद्यालय खड़ा नहीं हुआ. कन्हैया और जेएनयू के पक्ष में पूरे देशभर में जोनपुर को छोड़ एक भी स्थान पर प्रदर्शन नहीं हुआ. लाल झण्डा लेने वालों को तिरंगा झंडा लेना पड़ा. आजादी के नारे लगाने वालों ने अपने नारे बदल दिए. उन्होंने भारत माता के नारे लगाए. उनको बड़ी चुनौती देश में मिली है. वे दीवार के किनारे खड़े हो गए. साठ साल से जेएनयू यही पैदा कर रहा था. ये ठीक है कि एकेडमी लाइन में उन्होंने स्थान बनाया है, परन्तु यह भी ठीक है कि जेएनयू वामपंथ की एक बड़ी नर्सरी है. विद्यार्थियों को प्राध्यापक बनाकर देश में एस्टेब्लिश किया है. देश के सामने बड़ी चुनौती है, लेकिन उस चुनौती को भी देश स्वीकार करता है.
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