नई दिल्ली. इन्द्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र तथा नेशनल बुक ट्रस्ट के संयुक्त तत्वाधान में विश्व पुस्तक मेले में राष्ट्रीय साहित्य एवं डिजिटल मीडिया विषय पर विचार गोष्ठी आयोजित की गयी. इस अवसर पर सुरुचि प्रकाशन की ‘कल्पवृक्ष’ नामक पुस्तक का विमोचन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे. नन्दकुमार जी ने किया. गोष्ठी में नन्दकुमार जी ने कहा कि राष्ट्र क्या है, राष्ट्रीय क्या है, यह चर्चा बहुत सालों से भारत में चल रही है. देश में कुछ लोगों के विचार में राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं है, ऐसे विचार रखने वाले इंटलैक्चुअल, तथाकथित लेखकों की लिखी हुई पुस्तकें भी हमें मिलती हैं. भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र है, हिमालय से समुद्र तक का भाग एक राष्ट्र है. इस राष्ट्र की कल्पना वेदकाल से ही यहां मौजूद है. यह कोई नया या बनावटी विचार नहीं है. यह राष्ट्र राजनीतिक अथवा मिलिट्री के आधार के बिना भी एक ही है. कश्मीर ये लेकर कन्याकुमारी तक एक विचार, एक आदर्श से यह एक राष्ट्र है. राष्ट्रीय साहित्य के संदर्भ में इस विचार को समाज के अन्दर पहुंचाने के लिए पहले जो साहित्य निर्माण होता रहता था, उस साहित्य के प्रचार के बारे में हमें सोचना होगा. उस तरह के साहित्य से मिले विचार से ही पूर्व में यह राष्ट्र शक्तिशाली बना था. इसको ध्यान में रखते हुए ही प्राचीन काल में यहां रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों का तमिल, तेलगु, मलयालम आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ और इन ग्रंथों के विचार एवं आदर्श जन-जन के हृदय तक पहुंचे.
उन्होंने चिंता जताई कि भारत में उभरे तथाकथित नवराष्ट्रवादी, वामपंथी सोच वाले कहते हैं कि संस्कृत आर्यों की भाषा है और वह यहां बाहर से आए थे. यह उनका अराष्ट्रीय दृष्टिकोण है. भारत में साहित्य अनेक भाषाओं में लिखा गया है, लेकिन उसमें विचार एक ही है. पूरे भारत को जोड़कर रखने वाला साहित्य, भारत को एक दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाले साहित्य को ज्यादा प्रचार गत कुछ सालों से नहीं मिल रहा है. इसके लिए भारत में ब्रिटिश काल से ही सक्रिय कुछ तथाकथित शैक्षणिक संस्थाएं दोषी हैं. आजादी के बाद यहां उनसे निकले इंटलैक्चुअल सक्रिय हो गए. ऐसे लोगों ने एक विस्मृति हमारे ऊपर थोप दी है. इनके कारण से राष्ट्रीय साहित्य का प्रचार कम हो गया. उसकी जगह पर नवराष्ट्रवाद या बहुराष्ट्रवाद अथवा अराष्ट्रवाद को मानने वाले लोगों के साहित्य का ज्यादा प्रचार हुआ. उनके विचार में राष्ट्र नहीं है, इसलिए राष्ट्र के टुकड़े करने के लिए यह लोग आगे निकलते हैं. ‘भारत के टुकड़े होंगे, ऐसे नारे लगाने वाले लोगों की संख्या इसी अराष्ट्रीय साहित्य से निकले विचार के कारण बढ़ रही है.
उन्होंने कहा कि आज के डिजिटल युग में माना जा रहा है कि पुस्तक पढ़ना कम हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं है. आज भी प्रकाशन संस्थाओं की संख्या बढ़ रही है, इससे पता चलता है कि लोग पुस्तकें खरीद कर पढ़ रहे हैं. पुस्तक मेले में बड़ी संख्या में युवाओं द्वारा पुस्तकें खरीदना इसका प्रमाण है. पुस्तकों के क्षेत्र में बढ़ रहा डिजिटाइजेशन अच्छी बात है. राष्ट्रीय साहित्य की भी बड़ी संख्या में डिजिटाइजेशन और पुस्तक मेलों की जरूरत है. ईबुक्स का वितरण अपेक्षानुरूप नहीं हो रहा है, इसे भी बढ़ाने की जरूरत है. भारत कथा वाचन का बहुत बड़ा स्थान है, इस तरह की पुस्तकें, संस्कृति-राष्ट्र से सम्बन्धित, इस राष्ट्र को प्रेरणा देने वाली पुस्तकों की निर्मिति हार्डकॉपी के साथ-साथ सॉफ्ट कॉपी के रूप में भी पूर्ति बढ़ाने की आवश्यकता है. पुस्तकों के विषय के साथ-साथ भाषा की शुद्धता के बारे में भी सोचने की आवश्यकता है.
नंदकुमार जी ने आह्वान किया कि साहित्य द्वारा राष्ट्रीय विचार के प्रचार पर हम सबको काम करने की आवश्यकता है. यह केवल कुछ पब्लिशिंग हाउसेज का काम नहीं है, व्यक्ति भी अपनी तरफ से कर सकते हैं. व्यक्ति स्वयं पुस्तक का लेखक, प्रकाशक तथा वितरक भी बन सकता है. इसके लिए आज हम सोशल मीडिया का सपोर्ट ले सकते हैं.
आर्गनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर जी ने कहा कि डिजिटल मीडिया विचारों के प्रचार के लिए आज एक वैकल्पिक स्रोत के रूप में उभरा है. भारत के विषय में जो भी चर्चा चली है, जिसमें चाहे जम्मू-कश्मीर, गोहत्या पर प्रतिबन्ध, भारत की सांस्कृतिक विरासत का विषय हो. इन सारे विषयों पर हमें यह दिखता है, कि एक काउंटर व्यू डिजिटल मीडिया में अचानक प्रमाणिक तथ्यों, संदर्भ सहित आता है और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ-साथ प्रिंट मीडिया को भी उसका सहारा लेना पड़ता है. उदाहरण के लिए औरंगजेब रोड के नाम परिर्वतन का विषय आया. डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर उस मार्ग का नाम क्यों न हो, स्वाभावतः 70-80 के दशक की तरह इस विषय को ले जाने की कोशिशें होने लगीं कि क्या सेकुलर है और क्या कम्युनल. वो दौर होता तो औरंगजेब कितना सेकुलर था, कितना अच्छा प्रशासक था, कितना श्रेष्ठ था, यह बताने का बहुत प्रयास होता. ऐसी स्थिति में शायद कुछ निर्णय भी नहीं होता. लेकिन डिजिटल मीडिया का प्लेटफार्म था, जिसने यह विषय पकड़ा, उस पर चर्चाएं कीं, उस पर साहित्य से संदर्भ भी निकाले, नया साहित्य भी डिजिटल प्लेटफार्म पर प्रस्तुत हुआ और चर्चा इस दिशा में गई कि बिना कुछ समय गंवाए डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर उस रास्ते का नामांतरण हुआ. डिजिटल मीडिया के महत्व को देखते हुए इसका गलत उपयोग भी किया जा रहा है, जिससे पूरा विश्व चिंतित है. इसके लिए डिजिटल स्पेस पर वैधानिक नियंत्रण कैसे रखें, इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है. साइबर आक्रमण के माध्यम से देश के विरुद्ध हो रहे दुष्प्रचार से बचाव के लिए हमें अपनी व्यवस्थाएं दुरस्त करने की जरूरत है.
उन्होंने कहा कि समाज को हम सही तरीके से इसका प्रयोग करने के लिए तैयार करते हैं तो आने वाले समय में प्रिंट मीडिया भी डिजिटल मीडिया के साथ राष्ट्रीय विचारों का प्रभावी वाहक बनने के लिए बाध्य हो जाएगा और धीरे-धीरे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को भी वह राह पकड़नी होगी, ऐसी स्थिति के लिए हम डिजिटल मीडिया का सकारात्मक प्रयोग करें, प्रयोगशीलता से लोगों को ट्रेंड करें, उनकी मानसिकता बनाएं, सोच बनाएं, स्किल्स बढ़ाएं. इस सोच के साथ हम आगे बढ़ते हैं तो मुझे लगता है कि ऐसी संगोष्ठी का सही मायने में उपयोग होगा और डिजिटल मीडिया एक सेमी इंटरटेनमेंट माध्यम न रहते हुए प्रभावी, वैचारिक, चिंतन और मंथन का साधन बन पाएगा.
सुप्रसिद्ध हिन्दी ब्लागर नलिन चौहान जी ने कहा कि आज प्रिंट मीडिया डिजिटल मीडिया को फॉलो कर रहा है. यूनिकोड के आने से अब हम अपने विचार डिजिटल मीडिया द्वारा सुगमता से सबको बता सकते हैं. हाल ही में फेसबुक ने जो नया फीचर इंस्टेंट लाइव शुरु किया है, इसके माध्यम से हम अपने विचार इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की तरह तत्काल जन-जन तक पहुंचा सकते हैं. डिजिटल मीडिया की जब हम बात करते हैं तो हमको कुछ लोग ऐसे तैयार करने होंगे जो भाषा और उसके व्याकरण पर मूल रूप से काम करें. क्योंकि उदाहरण के लिए जैसे सेकुलर शब्द की अवधारणा जो चर्च और स्टेट से निकली थी. हमारे यहां भारतीय संदर्भ उसका बहुत भिन्न हो गया.
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