Sunday, January 22, 2012

हिन्दू राष्ट्र की रक्षार्थ सदैव सक्रिय रही है

राष्ट्ररक्षक धर्मसत्ता-1 हिन्दू राष्ट्र की रक्षार्थ सदैव सक्रिय रही है

आध्यात्मिक संत शक्ति

नरेन्द्र सहगल

सत्ता की राजनीति से पूर्णतया अलिप्त मानवतावादी जीवनदर्शन अर्थात हिन्दुत्व भारत की राष्ट्रीयता का आधार है। इसीलिए विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत और भारतीयता को समाप्त करने के उद्देश्य से हिन्दू संस्कृति पर आघात करने की सोची समझी रणनीति बनाई। इतिहास साक्षी है कि भारत का गौरव और पतन सदैव हिन्दुत्व के गौरव और पतनावस्था के साथ जुड़ा रहा है। भारत और भारत की संस्कृति पर होने वाले प्रत्येक विदेशी एवं विधर्मी आक्रमण के समय हिन्दुत्व एक शक्तिशाली ढाल बनकर सामने आया और भारत में विद्यमान धर्मसत्ता ने समाज को संगठित करके एक शक्ति के रूप में खड़ा कर दिया। आज भी भारत और हिन्दुत्व पर जो विदेशी और विधर्मी आघात हो रहे हैं उनके प्रतिकार के लिए एक संगठित और शक्तिशाली धर्मसत्ता अर्थात राष्ट्रीय संत शक्ति की आवश्यकता है।

भारत राष्ट्र की अस्मिता अर्थात हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए भिन्न-भिन्न क्षेत्रों और वर्गों में राजनीति से अलिप्त एक अध्यात्मिक संत शक्ति का जागरण हो रहा है। इस धर्मसत्ता के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए भारतीय इतिहास के उन पृष्ठों पर दृष्टि डालनी होगी जिन में भारत की इस गौरवशाली और अमर-अजर आध्यात्मिक परंपरा के दर्शन होते हैं। भारत के राष्ट्रीय जीवन का आधार राजा-महाराजा अथवा राज्यसत्ता कभी नहीं रहे। यही वजह है कि राजाओं-महाराजाओं और उनकी सत्ताओं (आज की भाषा में सरकारों) के घोर पतन के समय भी भारत की राष्ट्रीय संस्कृति का बाल भी बांका नहीं हुआ। शताब्दियों तक चले विदेशी आक्रमणों और विधर्मी सत्ताओं के समय भारत की पुण्य धरती पर अवतरित हुए धर्मसत्ता के प्रतिनिधि संतों-महात्माओं ने भक्ति और शक्ति का समन्वय करने वाली एक ऐसी प्रचंड राष्ट्रवादी लहर उत्पन्न कर दी जिसके आगे विदेश की आक्रामक लहरें टिक नहीं सकीं। अत्यंत प्राचीन काल से लेकर आज तक यह आध्यात्मिक संत शक्ति भारत के अस्तित्व की रक्षा करती चली आ रही है।

धनुर्धारी श्रीराम

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का अवतरण भी भारतीय समाज को रावण जैसे दानव के क्रूर अत्याचारों से रक्षा करने के उद्देश्य से हुआ था। अवतार पुरुष श्रीराम को राष्ट्र रक्षक धनुर्धारी राम के रूप में तैयार करने में तत्कालीन संतों-महात्माओं ने अथक परिश्रम किया था। महर्षि अगस्त्य, विश्वामित्र और वशिष्ठ जैसे तपस्वी ऋषि मुनियों ने सारे देश में घूमकर अपने प्रवचनों और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से एक प्रबल राष्ट्रीय चेतना का जागरण कर दिया। समाज के संगठित और शक्ति संपन्न हो जाने से उस समय की राज्यसत्ता को भी बल मिला। धन वैभव से कोसों दूर वनों में बैठे संतों ने श्रीराम और लक्ष्मण के रूप में भारतीय शक्ति खड़ी की जिसने रावण जैसी विदेशी और विधर्मी शक्तियों को जड़मूल से समाप्त कर दिया। भारतीय संस्कृति के उद्गम स्थलों, आध्यात्मिक केन्द्रों, ऋषियों के आश्रमों और ज्ञान के भंडारों पर हो रहे राक्षसी आघातों का सफल प्रतिकार करने में संत शक्ति का योगदान भारत की सर्वगुणी समाज रचना का आधार रहा है।

सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण

महाभारत के समय का भी यदि गहराई और विस्तार से अध्ययन करें तो स्पष्ट दिखाई देगा कि सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण के रूप में जागृत और संगठित संत शक्ति ने ही धर्मराज युधिष्ठर सहित सभी पांडवों को धृतराष्ट्र और दुर्योधन जैसी शक्तियों को समाप्त करने के लिए तैयार किया था। हिमालय की गुफाओं और वनों में स्थापित संदीपनी आश्रम जैसे उच्च आध्यात्मिक केन्द्रों में श्रीकृष्ण जैसे आध्यात्मिक योद्धा और समयोचित नीति निपुण समाज संचालकों का निर्माण हुआ। श्रीकृष्ण ने साक्षात युद्ध के मैदान में गीता जैसे उच्चतम कर्मयोग के ज्ञान का उद्घोष करके अर्जुन जैसे धर्मरक्षक योद्धाओं को अराष्ट्रीय और धर्मविहीन सत्तालोलुपों का नाश करने की प्रेरणा दी थी। उस समय भी आध्यात्मिक ज्ञान के धनी भारत के संतों महात्माओं ने ही समाज को संगठित करके धर्मसत्ता के राष्ट्रीय महत्व को स्थापित किया था। यह राष्ट्रधर्म का जागरण था।

हिन्दू सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य

इसी तरह से ही हमारे भारत में जगत् गुरु शंकराचार्य के रूप में संतों, महात्माओं की एक राष्ट्रभक्त श्रृंखला का प्रकटीकरण हुआ। राष्ट्र पर मंडराने वाले विधर्मी संकटों के प्रतिकार के लिए फिर संत शक्ति सामने आई। पूरे भारत में धर्म की पुनस्र्थापना हेतु गांव-गांव में शक्ति केन्द्रों की स्थापना हुई। देश के चारों कोनों में स्थापित चारों धामों ने भारतीय समाज को पुन: वैदिक धरातल पर जोड़ दिया। जगत् गुरु शंकराचार्य के अनुयायी युवा ऋषियों ने भारत के कोने-कोने में घूमकर सनातन वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु लाखों युवकों को ऋषि परंपरा के अंतर्गत लाकर राष्ट्रद्रोह की दुरिभ संधियों को तोड़ डाला। धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिवधियों में राष्ट्रभावना उदीप्त होने लगी। परिणामस्वरूप चाणक्य जैसे महान संगठनकत्र्ताओं के प्रयासों से विदेशी आक्रमणकारी परास्त हुए और सम्राट चंद्रगुप्त जैसे प्रतापी शासकों का उदय हो सका।

महाराज कृष्णदेव राय

दक्षिण भारत के मैसूर क्षेत्र में भी जब हिन्दू संस्कृति के विनाश के लिए अधर्मी तत्वों ने अपनी शक्ति बढ़ाना प्रारंभ किया तो समाज जीवन छिन्न- विछिन्न होने लगा। मातृभूमि, राष्ट्रीयता, हिन्दुत्व के जीवनादर्श इत्यादि भाव लुप्त होने लगे। उस संकटकालीन घड़ी में प्रसिद्ध संत स्वामी विद्यारण्य ने राष्ट्रवाद की अलख जगाई। इस युवा संन्यासी के युवा शिष्यों ने दूरदराज के क्षेत्र में जाकर राष्ट्रभक्ति की प्रचंड ज्योति जला दी। राष्ट्रवादी समाज में जागृति की लहर उठी। अराष्ट्रीय तत्व पराजित हुए। भक्ति और शक्ति के इस धरातल में से समाज एक राष्ट्रपुरुष के रूप में खड़ा हो गया। महाराज कृष्णदेव राय के नेतृत्व में राष्ट्रीय राज्य शक्ति का उदय होकर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। यह वैभवशाली हिन्दू साम्राज्य निरंतर तीन सौ वर्षों तक चलता रहा।

छत्रपति शिवाजी महाराज

जब भारत में विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं की अमानवीय अत्याचारों की आंधी चली तो उस समय भी हिन्दू संतों ने राष्ट्रीय जागरण का देशव्यापी अध्यात्मिक आंदोलन चलाकर हिन्दू संस्कृति की रक्षा की। राष्ट्रवाद की क्षीण हो रही ज्योति को जलाए रखने के लिए संत शक्ति में रामायण, महाभारत, उपनिषदों को आधार बनाकर वैदिक संस्कृति की ध्वजा चारों ओर फहरा दी। आध्यात्मिक प्रवचनों, भजनों, कीर्तनों और धार्मिक सम्मेलनों में श्रीराम, कृष्ण इत्यादि राष्ट्रीय पुरुषों की वीरतापूर्ण कथाएं सुनाई जाने लगीं। तुलसीदास, सूरदास, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, रामानंद, रामानुज एवं नानक इत्यादि महापुरुषों ने राष्ट्र की चेतना को जगाए रखा। महाराष्ट्र के समर्थ रामदास स्वामी ने जगह जगह अखाड़ों इत्यादि की स्थापना करके हिन्दू युवकों में भाव का ऐसा जागरण अभियान प्रारंभ किया जिसके परिणामस्वरूप छत्रपति शिवाजी एवं उनके जैसे सैकड़ों वीर तैयार हो गए। अफजल शाह और शाइस्ता खां जैसे दुर्दांत आक्रांताओं को समाप्त किया जा सका। दिल्ली पति औरंगजेब का भी मान मर्दन करने वाले शिवाजी महाराज ने हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करके राष्ट्रीय पुनरुत्थान का श्रीगणेश किया।

महाराजा रणजीत सिंह

इसी प्रकार पंजाब को केन्द्र मानकर श्री गुरुनानक देव और उनकी शिष्य परंपरा ने अध्यात्म आधारित भक्ति और शक्ति की लहर चलाई। इसी का परिणाम था देशभक्त और धर्मरक्षक खालसा पंथ की स्थापना। इतिहास गवाह है कि श्री गुरुगोविंद सिंह द्वारा निर्मित धर्म और राष्ट्र रक्षक खालसा पंथ के अनुयायियों सरदार हरि सिंह नलवा जैसे असंख्य वीर सिख योद्धाओं ने खैबर दर्रे को पार करके गजनी (अफगानिस्तान) तक केसरिया पताका फहराई थी। संत सिपाही की इसी परंपरा में से बंदा वीर वैरागी जैसे तपस्वी योद्धा और महाराजा रणजीत सिंह जैसे कुशल शासक तैयार हुए थे। स्पष्ट है कि संतों और ऋषि-मुनियों ने अथक परिश्रम करते हुए राष्ट्रीय जागरण की लहर चलाकर राष्ट्रघातक शक्तियों को परास्त किया था।

राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी

जब सात समुद्र पार से आए धूर्त अंग्रेज शासकों ने भारत राष्ट्र और हिन्दू संस्कृति को समाप्त करने की जघन्य साजिशें रचीं तो हमारे देश के आध्यात्मिक नेताओं और संतों ने पुन: राष्ट्रीय मंच पर आकर स्वतंत्रता संग्राम को राष्ट्रवादी दिशा प्रदान की। अंग्रेजों के आधिपत्य के समय की समीक्षा करने पर साफ दिखाई देता है कि योगी अरविंद और महर्षि रमण (दक्षिण भारत), स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानंद (पंजाब) एवं रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद (बंगाल) जैसे संतों ने भारत राष्ट्र के आध्यात्मिक आधार को तैयार करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह भी एक निर्विवाद सत्य है कि स्वतंत्रता संग्राम की मशाल को अपने सशक्त हाथों में थामने वाले देशभक्त क्रांतिकारी भी इन्हीं साधु-संन्यासियों से प्रेरणा लेते थे। सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, राम सिंह कूका, वासुदेव फड़के और सुभाष जैसे क्रांतिकारियों को राष्ट्रवादी संस्कार देने में संतों का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

संत जननी भारत भूमि

अत: यह स्पष्ट है कि भारत में जब भी अधर्म की विदेशी आंधी चली, यहां सदैव विद्यमान संत शक्ति ने समाज को प्रखर राष्ट्रभक्ति के आधार पर संगठित करके प्रतिकार के लिए तैयार किया। आज भी अपने देश में विदेश प्रेरित धर्म विरोधी शक्तियां सक्रिय हैं। सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर विभिन्न रूपों में इन राष्ट्र विरोधी शक्तियों को बढ़ावा मिल रहा है। भारत की जीवनरेखा हिन्दू संस्कृति पर संकट के बादल गहरे होते जा रहे हैं। आज फिर हिन्दुत्व की रक्षा के लिए एक संगठित, सक्षम एवं शक्तिशाली धर्मसत्ता अर्थात संत शक्ति की आवश्यकता महसूस की जा रही है वास्तव में भारत की भूमि कभी भी महान संत- महात्माओं से शून्य नहीं हो सकती। इसलिए हिन्दुत्व भी कभी समाप्त नहीं हो सकता

भारत एवं समस्त मानवता के सौभाग्य से हमारी यह संत शक्ति आज फिर एक बार आध्यात्मिक सूर्य के रूप में प्रकट हो रही है। इस समय तीन बातों की अत्यंत आवश्यकता है। प्रथमत: संत शक्ति एकजुट होकर यह विचार करे कि भारत के प्राण तत्व हिन्दुत्व पर कौन से संकट किन रुाोतों से खड़े हो रहे हैं? द्वितीय, संत शक्ति एवं धार्मिक संगठन हिन्दुत्व, हिन्दू संस्कृति और राष्ट्र/राष्ट्रीयता जैसे शब्दों का उद्घोष करें। तृतीय संत शक्ति का एक ऐसा धरातल तैयार हो जो राजसत्ता पर अंकुश रख सके।

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