सांदीपनी साधनालय, पवई, मुम्बई. दो दिवसीय चिंतन बैठक के साथ विश्व हिन्दू परिषद का स्वर्ण जयंती महोत्सव का 16 अगस्त को यहां शुभारम्भ हुआ. इस अवसर पर परिषद के महामंत्री श्री चम्पत राय ने संत-महापुरुषों के समक्ष परिषद के कार्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत की, उसे अविकल रूप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है.
पूज्य संत-महापुरुषों के श्रीचरणों को अपना प्रणाम निवेदन करता हूँ. परिषद कार्य में आज का दिन ऐतिहासिक है. 50 वर्ष पूर्व वर्ष 1964 में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन इसी पवित्र स्थल पर देश के स्वनामधन्य संतजन व हिन्दुस्थान व हिन्दू समाज के गौरवशाली स्वरूप को देखने की इच्छा रखनेवाले महानुभाव एकत्र हुये थे. सांदीपनी साधनालय के अधिष्ठाता पूज्यपाद स्वामी चिन्मयानंद जी महाराज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरुजी, मास्टर तारासिंह जी, सद्गुरु जगजीत सिंह जी, रामटेक के योगशिरोमणि सीताराम दास जी महाराज, राष्ट्र संत तुकडो जी महाराज, डॉ. कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, हिन्दू महासभा के तत्कालीन महासचिव श्री बी0जी0 देशपाण्डे सरीखे श्रेष्ठजन इस अवसर पर उपस्थित थे, जिन्होंने हिन्दू समाज की अवस्था पर चिंतन करते हुए विश्व हिन्दू परिषद के गठन की घोषणा की थी.
ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों का अध्ययन करने के लिए मध्यप्रदेश सरकार द्वारा गठित नियोगी आयोग की रिपोर्ट ने देश में हलचल पैदा कर दी थी. रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो गया था कि भारत में ईसाई मिशनरियों को विदेशों से प्राप्त होनेवाले धन से संचालित स्कूल, अस्पताल, अनाथालय जैसे सेवा प्रकल्पों का दुरुपयोग गरीब लोगों को विशेष रूप से वनवासियों को छल-कपट द्वारा धर्मान्तरित करने में किया जाता है. ये धर्मान्तरण समाज की समरसता भंग कर रहा था. धर्मान्तरण करनेवाली शक्तियाँ देश को और अधिक टुकडों में बांटने की इच्छा रखती थीं. आठवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड में तलवार के भय से किए गये धर्मान्तरण के कारण ही 1947 में भारत का विभाजन हुआ था. यह विभाजन समाज को पीड़ा पहुंचा रहा था. महापुरुषों का विचार था कि भविष्य में समाज के सम्मुख विभाजन के इतिहास की पुनरावृत्ति न हो और जो बन्धु हमारे से छीन लिए गये, उनको अपने पूर्वजों से जोड़ने का प्रयास किया जाये.
विदेशों में निवास करनेवाला हिन्दू अपनी परम्पराओं और सांस्कृतिक जड़ों से कट रहा है. कैरेबियन देशों में रहनेवाला हिन्दू अपने नामकरण और विवाह सरीखे संस्कार भी चर्च में कराता था. इस अवस्था से वहां निवास करने वाले अनेक लोग दुःखी रहते थे. इस समाज को अपने धर्म, अपने संस्कार और अपने पूर्वजों की धरती से जोड़कर रखने के लियेकुछ प्रयत्न किया जाये.
ऊँच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य के भेदभाव को त्यागकर हिन्दू समाज अपने सभी धार्मिक, सामाजिक कार्य जात-पांत और जन्म का विचार किए बिना एक भ्रातृत्व भाव के आधार पर सम्पन्न करे ताकि यह समाज कालबाह्य सामाजिक कुरीतियों से मुक्त होकर निर्दोष और तेजस्वी बने और संत महापुरुष समाज को युगानुकूल नई आचार व्यवस्था प्रदान करें, इसकी आवश्यकता महापुरुष अनुभव करते थे.
दुनिया के अनेक देशों में साम्यवादी शासन स्थापित हो चुका था. चीन तिब्बत को हड़प कर नेपाल की सीमा तक आ गया था. साम्यवाद धर्म को अफीम मानता था. तिब्बत में मंदिर तोड़े गये थे, 1962 में चीन भारत पर हमला कर चुका था. साम्यवाद के इस वैचारिक आक्रमण से अपने देश की रक्षा करने का विचार अनेक लोगों के मन में घूमता था.
धन के प्रभाव और धन के अभाव वाले दोनों ही क्षेत्रों में संस्कारों का अभाव अनुभव होता था. हिन्दू परिवारों में अच्छे संस्कार बाल्यकाल से ही प्रदान करने की व्यवस्था स्थापन करने का विचार भी अनेक लोगों को कौंधता था.
गौ हिन्दू समाज के लिये श्रद्धा का विषय सदैव से रहा. गाय की रक्षा के लिये हिन्दू समाज ने बलिदान दिये हैं. इस देश की मान्यता है कि यह धरती गाय पर टिकी है. गाय सदैव से भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार रही है. परन्तु परतंत्रता/संघर्ष के काल में गौवंश की हत्या प्रारंभ हुई जो भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात भी थमी नहीं. गौ की रक्षा के लिये समाज में जागृति पैदा हो, इसकी आवश्यकता अनुभव होती थी.
भारत को आजादी मिलने के बाद भी संस्कृत भाषा उपेक्षित थी. हिन्दू मठ-मंदिर, हिन्दू समाज की रीढ़ रहे, इस रीढ़ को अंग्रेजों ने तोड़ने के लिये मठ-मंदिरों को राज्य के नियंत्रण में लेने का प्रयास अंग्रेजों ने किया इसके लिये कानून बने और मठ-मंदिर, सरकार का विभाग बन गया, मंदिरों की जमीनों को हड़पना, बेचना प्रारम्भ हो गया. यह भी भारतीय समाज पर आक्रमण था. आजादी के बाद भी जिन व्यक्तियों के हाथ में सत्ता आई वे विदेशी नीतियों के अनुगामी बने रहे, इस दृश्य को बदलने का विचार उस समय आया.
भारत में उत्पन्न सभी मत पंथ, सम्प्रदाय एवं धर्मों को एक जगह लाकर देश-विदेश में फैले उनके असंख्य अनुयायियों को एकसूत्र में गूंथने का प्रयास किया जाये, उनके हृदय में हिन्दू संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव निर्माण हो, जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों के प्रति आस्था पैदा हो. इसकी आवश्यकता भी अनुभव की जा रही थी.
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिये दार्शनिक आचार्यों, गुरुओं, विचारकों और प्रख्यात सामाजिक चिंतकों ने श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 29 अगस्त, 1964 को विश्व हिन्दू परिषद नाम से एक संगठन के गठन की घोषणा की थी.
सांदीपनी साधनालय के प्रतिष्ठाता पूज्य स्वामी चिन्मयानंद जी महाराज, मैसूर रियासत के महाराजा जयचामराज वाडियार, मेवाड़ के महाराणा भगवत सिंह, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शिवनाथ काटजू, उद्योगपति विष्णुहरि डालमिया एवं श्री अशोक सिंहल अध्यक्ष के रूप में अब तक परिषद का नेतृत्व कर चुके हैं.
बौद्धजगत के धर्मगुरु परमपावन दलाई लामा जी, भारत में चारों पीठों के जगद्गुरु शंकराचार्य, महंत दिग्विजय नाथ जी, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, जगद्गुरु मध्वाचार्य पूज्य स्वामी विश्वेशतीर्थ जी महाराज, कर्नाटक के पूज्यपाद शंकरानंद सरस्वती जी, असम के पूज्यपाद सत्राधिकारी, वेदमूर्ति पूज्यपाद दामोदर सातवलेकर जी, होशियारपुर पंजाब के आचार्य विश्वाबंधु जी, गुरु गंगेश्वरानन्द जी महाराज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति डॉ. सी. पी. रामास्वामी अय्यर, श्री एन. बी. गाडगिल, श्री जुगलकिशोर बिरला, श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार का आशीर्वाद और सक्रिय सहयोग परिषद कार्य में सदैव रहा है.
भारत के राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णनन्, उपराष्ट्रपति श्री गोपालस्वरूप पाठक, राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरि, उत्तरप्रदेश के राज्यपाल श्री गोपाल रेड्डी एवं श्री विश्वनाथ दास जी, बिहार के राज्यपाल श्री अनन्त शयनम अयंगार, नेपाल नरेश, नागा समाज की रानी गाइडिल्यू एवं श्री जगजीवन राम, ग्वालियर घराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया, मॉरीशस के उद्योग मंत्री दयानंद बसंतराय, कवयित्री महादेवी वर्मा, कर्नाटक राज्य लोकसेवा आयोग के सदस्य श्री आर. भरनय्या सरीखे श्रेष्ठ लोगों का आशीर्वाद परिषद को प्राप्त हुआ है.
1964 से 1971 तक भारत और भारत से बाहर भिन्न-भिन्न स्तर पर हिन्दू सम्मेलनों का आयोजन हुआ, इन सम्मेलनों के कारण समाज में स्वाभिमान पैदा हुआ, हम सब हिन्दू हैं यह भाव जगा. जहां-जहां सम्मेलन हुए वहां-वहां विश्व हिन्दू परिषद का कार्य प्रारंभ होने लगा.
संसार के अनेक देशों में स्वयं जाकर 88 स्थानों पर चारों वेदों के संयुक्त ग्रन्थ की स्थापना और वेद मंदिर के निर्माण का कार्य अपने प्रारंभिक जीवन में परिषद कार्यकर्ताओं ने किया. जो हिन्दू अनेक कारणों से भूतकाल में अपनी परंपरायें, धर्म और महापुरुष छोड़कर इस्लाम या चर्च के अनुगामी बन गये थे, उनको पुनः हिन्दू समाज स्वीकार कर ले तो देश का बहुत बडा लाभ हो सकता है. इस विचार को जनवरी 1966 में प्रयागराज में संगमतट पर आयोजित हिन्दू सम्मेलन में संतों ने अपनी पूर्ण स्वीकृति प्रदान की और घरवापसी के मार्ग के अवरोध को समाप्त किया. इसी सम्मेलन में ‘‘न हिन्दू पतितो भवेत’’ का जयघोष पूज्य पेजावर स्वामी द्वारा किया गया था.
दिसम्बर, 1969 को कर्नाटक राज्य के उडुपी तीर्थस्थल पर सम्पन्न हुए हिन्दू सम्मेलन में सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी श्री आर0 भरनय्या के द्वारा प्रस्तुत किए गए अस्पृश्यता और ऊंच-नीच के भेदभाव को त्याग कर अपने सभी सामाजिक कार्य भ्रातृत्व भाव के आधार पर करने के प्रस्ताव को पूज्य संतों ने हजारों श्रद्धालुओं के समक्ष करतल ध्वनि से स्वीकार किया था. ‘‘हिन्दवः सोदरा सर्वे की घोषणा इसी सम्मेलन में की गई थी. संत-महापुरुषों ने अस्पृश्यता को त्यागने का आह्वान इसी सम्मेलन से किया गया था.
हिन्दू समाज जनगणना में अपने को हिन्दू लिखाये. हिन्दू समाज का कोई भी अंग अब समाज से न टूटे, हम सब हिन्दू हैं, हिन्दू को आदर्श हिन्दू बनाना है, संत समाज सर्वसाधारण समाज के मध्य भ्रमण करना प्रारंभ करे. समाज का जो वर्ग विकास की दौड़ में बहुत पीछे रह गया है, शिक्षा से पूर्णतः वंचित हो जाने के कारण आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ गया, ऐसे बंधुओं को समाज में आगे बढ़ाने के लिये सम्मानपूर्वक रहने का अवसर प्रदान करने के लिये उनमें शिक्षा, चिकित्सा सरीखे सेवाकार्य हिन्दू समाज आगे आकर प्रारंभ करे, ऐसे आह्वान हिन्दू सम्मेलनों से हुए. परिणामस्वरूप सेवाकार्यों का प्रारंभ हो गया.
उत्तराखण्ड, गुजरात, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर में भूकम्प, उड़ीसा, आन्ध्र, तमिलनाडु, बिहार में बाढ़, समुद्री तूफान, सुनामी की दैवीय आपदा आने पर परिषद से जुडे कार्यकर्ता एवं कार्यकर्ताओं की प्रेरणा से समाज का बहुत बड़ा वर्ग सेवाकार्यों के लिये आगे आ गया.
पंजाब जब आतंक के संकट से जूझ रहा था, तब संत समाज पंजाब में सद्भावना का संदेश देने के लिये दस दिन तक भ्रमण करता रहा. अमरनाथ की तीर्थयात्रा पर पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद का संकट मंडराया तो संपूर्ण भारत की तरुणाई बजरंग दल के नाम पर आगे आई और आतंकवादी पीछे हट गये. जहां अमरनाथ यात्रा पर कभी कुछ हजार तीर्थयात्री ही यात्रा करते थे, वहां अब लाखों भक्त जाते हैं. बूढ़ा अमरनाथ सरीखे कठिन क्षेत्र में दर्शन के लिये जाने की हजारों लोगों को प्रेरणा देना बजरंग दल के युवकों का देश के प्रति सदैव स्मरण रखने योग्य कार्य है.
वर्ष 1979 में बौद्ध धर्मगुरु परम पावन दलाई लामा परिषद के वैश्विक सम्मेलन में प्रयागराज पधारे थे, उनका सम्मान ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्य स्वामी शांतानंद जी महाराज ने किया था, पूज्य दलाई लामा जी वाराणसी गये थे, काशी में उनका सम्मान काशी के पंडितों ने किया था. इतिहास के जाननेवाले इस कार्य के महत्व को भलीभांति समझ सकते हैं. वर्ष 1994 में काशी में डोमराजा के घर प्रसाद पाने के लिए संत स्वयं गये और अपने सम्मेलन में अपने बीच में बैठने के लिये निमंत्रित किया, वे आये. सामाजिक समरसता का यह उदाहरण अद्वितीय है.
गौमूत्र और गोबर खाद के उपयोग में आता है, यह तो सभी जानते हैं परन्तु गौमूत्र और गोमय मनुष्य शरीर के आरोग्य के लिये भी उपयोगी है, यह कार्य परिषद के एक कार्यकर्ता ने यह सिद्ध कर दिखाया. गौमूत्र अर्क, घनवटी का निर्माण प्रारंभ हुआ. पूज्य सत्य साईंबाबा जी ने उसे आशीर्वाद दिया. धीरे-धीरे वैज्ञानिकों ने पंचगव्य से निर्मित वस्तुओं पर अनुसंधान प्रारंभ किया. संसार के अनेक देशों से पेटेण्ट प्राप्त किये, आज पंचगव्य और पंचगव्य से बनी हुई वस्तुयें औषधि, कीटनियंत्रक के रूप में सारे देश में प्रचलित हैं. गाय का केवल दूध ही नहीं तो गौमूत्र और गोमय भी उपयोगी है और इसके आधार पर दूध न देनेवाली गाय से भी गाय के साथ-साथ परिवार का भरण-पोषण भी किया जा सकता है, यह सिद्ध हुआ है.
समाज की करोड़ों आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है, जहां सड़क नहीं, आवागमन के साधन नहीं, केवल पैदल चलना पडता है, सरकार के विद्यालय नहीं अथवा समाज के दिल-दिमाग से बच्चों को साक्षर बनाने का विचार ही निकल चुका है. ऐसे क्षेत्रों में स्वामी विवेकानंद जी के विचारों को आधार बनाकर साक्षरता का काम प्रारंभ हुआ. धीरे-धीरे ऐसे कठिन क्षेत्रों में आरोग्य, स्वाबलम्बन, संस्कार और स्वाभिमान जागरण का कार्य पिछले 25 वर्षों में प्रारंभ हुआ. देश के 54,000 स्थानों पर आज यह कार्य चलता है.
इसके अतिरिक्त भारत वर्ष में बाल संस्कार केन्द्र, प्राथमिक पाठशालायें, छात्रावास, वेद पाठशालाएयें, चल चिकित्सा वाहन, एम्बुलेंस, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र, नियमित अस्पताल, महिलाओं के लिये स्वयं सहायता समूह, स्वाबलम्बन के लिये प्रशिक्षण केन्द्र, गौशालायें, निराश्रित बालक-बालिकाओं के सर्वांगीण विकास के केन्द्र, इस प्रकार के 6,000 स्थाई सेवाकार्य परिषद की प्रेरणा से समाज चलाता है. इसके अतिरिक्त समय-समय पर अल्पकालिक, आकस्मिक सेवाकार्य भी कार्यकर्ता समाज की सहायता से सम्पन्न करते हैं. ये सेवाकार्य लगभग 225 पंजीकृत न्यासों/समितियों के माध्यम से चलाये जाते हैं.
आज हमारा कार्य भारत वर्ष में कुल 1,21,000 स्थानों पर किसी न किसी रूप में है. 51,000 स्थानों पर बजरंग दल के नाम से नवयुवकों में कार्य चलता है. 9,152 स्थानों पर मातृशक्ति एवं दुर्गावाहिनी का कार्य है. 60,000 स्थानों पर साप्ताहिक सत्संग चलते हैं. विगत 50 वर्षों में 61,00,000 व्यक्तियों को धर्मान्तरित होने से बचाया गया है. 7,00,000 लोगों ने पुनः अपने पूर्वजों की परंपरा को स्वीकार किया. 26,00,000 गोवंश को कटने से बचाया है. घर में छोटे बच्चे गाय के बारे में जानें इसके लिये गौविज्ञान परीक्षा के माध्यम से बच्चों को गाय के संबंध में जानकारी दी है. कर्नाटक, राजस्थान में रामायण और महाभारत की परीक्षायें छात्रों के बीच आयोजित की जाती हैं. आज देश के लगभग 15,000 संत परिषद के द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भागीदारी करते हैं. संसार के 40 देशों में हिन्दू जागरण का कार्य होता है. हिन्दू बौद्ध समन्वय हो, इसके विधिवत प्रयास किए गये हैं. 1528 में विदेशी आक्रांता द्वारा ध्वस्त किए गये मंदिर के पुनर्निर्माण के लिये प्रारंभ श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन और तमिलनाडु राज्य में रामेश्वरम के निकट भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित रामसेतु को तोड़ने के सरकारी प्रयत्नों के विरुद्ध किए गये प्रयास बहुत निकट की ही बात है. सारा संसार इन प्रयत्नों के परिणामों से परिचित है. इन प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में प्रबल एवं प्रभावी जागरण हुआ है, स्वाभिमान बढ़ा है.
परन्तु पाश्चात्य प्रभाव भी बढ़ा है, हिन्दू जीवनमूल्यों में ह्रास हुआ है, विघटनकारी शक्तियों का दुष्प्रभाव बढ़ा है, विविधता में एकता के उदात्त स्वरूप को भी कानून द्वारा गलत ढंग से व्याख्या करके समाज को भ्रमित करने और तोड़ने के प्रयास होते हैं. हिन्दू संस्कृति और हिन्दू संस्कारों में प्रदूषण और दुर्बलता अभी अनुभव होती है. समाज में आत्मविस्मृति के कारण अस्पृश्यता सरीखी सामाजिक बुराइयां अभी भी हैं. धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों ने हमारे समाज को विकृत ही किया है. हिन्दू समाज के लिये युगानुकूल नई आचार व्यवस्था प्रदान करने का 1964 की पीढ़ी का विचार पूर्ण करने की आवश्यकता अनुभव होती है.
भारत में उत्पन्न सभी धार्मिक परंपराओं के अनुयायियों में ‘‘हम हिन्दू समाज के अंग हैं’’, ‘‘हिन्दू हम सब एक हैं’’, यह भाव जगाना जरूरी है. हिन्दू जागरूक बने, समरस बने और हिन्दू सक्रिय भी बने यह आवश्यक है. जिस समाज को अस्पृश्य कहा जाता था उस समाज में शिक्षा और धन में तो वृद्धि हुई है, परन्तु सम्मान दिलाना अभी शेष है. समाज में आपस में मिलना-जुलना, खानपान तो बढ़े, साथ-ही-साथ हृदयों की निकटता भी बढ़नी चाहिये. 1966 और 1969 के सम्मेलनों के संदेश को आगे बढ़ाने की आवश्यकता अभी भी अनुभव होती है. धर्मान्तरण रोकना, धर्मान्तरित हो चुके समाज को पुनः अपने पूर्वजों की धारा से जोड़ना, अस्पृश्यकता सरीखी बुराइयों को दूर कर समरसता का भाव निर्माण करना तथा परिवारों में संस्कारों की रक्षा, मानबिन्दुओं की रक्षा जैसे विषय संपूर्ण समाज का विषय बने, ऐसे प्रयास करना आवश्यक है.
स्वर्णजयंती वर्ष में भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के द्वारा अपने कार्य का भौगोलिक विस्तार, सक्रिय कार्यकर्ताओं की संख्या में वृद्धि, सेवाकार्यों की वृद्धि और हिन्दू स्वाभिमान का भाव और अधिक जाग्रत कर सकें इसके लिये नवम्बर, दिसम्बर 2014 तथा जनवरी, फरवरी 2015 में प्रत्येक जिले में हिन्दू सम्मेलन आयोजन का निश्चय कार्यकर्ताओं ने किया है. साथ ही साथ वर्षभर में भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों की योजना/रचना की गई है. इन कार्यक्रमों में आप सभी संत/महापुरुषों का केवल आशीर्वाद ही नहीं तो सक्रिय सहयोग प्राप्त हो, यही निवेदन अत्यन्त विनम्रतापूर्वक करता हूँ.
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