3290 लाख हेक्टेयर कुल भू-क्षेत्र वाला भारत, विश्व का सातवां सबसे बड़ा देश है। प्रकृति ने हमें विविध प्रकार की जलवायु और मृदा (मिट्टी) प्रदान की है। हमारे देश में भूमि के विविध रूप जो प्रत्येक प्रकार के जीव-जन्तुओं का पालन करने में सक्षम है। मौसम ऐसा, मानो फसलों की जरूरतों के हिसाब से गढ़ा गया हो। वनस्पतियों की भांति प्राणियों की आनुवांशिक विविधता भारत में भरी पड़ी है। क्या फिर भी वर्तमान बदलते वातावरण में हम अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकने में सदैव समर्थवान बने रहेंगे? प्रदूषित वातावरण, कटते वन, घटती हुई वर्षा एवं वर्षा के दिनों की संख्या, बढ़ता हुआ पारा वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है।
जनसंख्या का बोझ और बदलते परिवेश में विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कृषि में निरन्तर गुणवत्तापूर्ण बदलाव आवश्यक है। ऐसी कृषि पद्धतियां एवं फसलों का विकास करने की भी आवश्यकता है जो कम से कम पानी में अधिक से अधिक गुणवत्तायुक्त उपज दे सकें। आज देश में जितनी बारिश होती है उसका मात्र 29 प्रतिशत हिस्सा ही संग्रहित हो पाता है। पिछले 10 वर्षों में वर्षा के आंकड़ों के अनुसार वार्षिक वर्षा का लगभग 92 प्रतिशत भाग तेज बौछारों के रूप में जून से सितम्बर तक प्राप्त हो जाता है। ऊंची-नीची प्राकृतिक बनावट के साथ ही भूमि संरक्षण तकनीकों के अभाव के कारण वर्षा का पानी अबाधगति से बहता हुआ ढेर सारी उपजाऊ मिट्टी एवं पोषक तत्वों के साथ छोटे-बड़े नालों से होता हुआ नदियों में जा मिलता है। जो हमारे उपयोग से परे हो जाता है। इसकी वजह से खरीफ में बोई गई फसलों में भी नमी की कमी हो जाती है। वर्षाधारित क्षेत्रों में भूमि कटाव के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति क्षीण होती है।
‘खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में’ संकल्प के साथ एक जनान्दोलन द्वारा ही हम इस गंभीर संकट से निपट सकते हैं। इसके लिये आवश्यक जल प्रबंधन पर अनुसंधान एवं परंपरागत जल स्रोतों का पुनर्जीवन एवं विकास पर पुरजोर प्रयास करने होंगे। वर्षा जल प्रकृति प्रदत्त अमूल्य संसाधन है। जनभागीदारी के माध्यम से इसका संचय और प्रबंधन होगा, तभी ग्रामीण विकास की कल्पना की जा सकती है। कृषि किसी भी देश की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है जो उपयुक्त भूमि एवं जल के बगैर संभव नहीं है। अतः वर्तमान में इसका संरक्षण तथा प्रबंधन प्राथमिकता के आधार पर किया जाना आवश्यक हो गया है। भूमि एवं जल हमारी अमूल्य प्राकृतिक सम्पदा है। भूमि आधार प्रदान करने के साथ-साथ, वनस्पतियों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों का प्रमुख साधन भी है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग बहुत सूझ-बुझ के साथ करना होगा।
जल संकट का कारण
ऊंची-नीची प्राकृतिक बनावट के कारण भूमि का अत्यधिक क्षरण हुआ है। दूसरी ओर भोगवादी वृत्ति ने जंगलों के लिये गहरा संकट खड़ा कर दिया है। चरोई की जमीन पर अवैध अतिक्रमण ने जानवर को चारे की तलाश में वनों में जाने के लिये मजबूर कर दिया है, जिसके कारण नये पौधों के विकसन में बाधा खड़ी होने लगी। शहरीकरण, औद्योगिकरण एवं बढ़ती जनसंख्या जल, जंगल, जमीन तीनों के लिये संकट का कारण बन गये हैं। अनुपयुक्त फसलें भी जलसंकट का बड़ा कारण हैं। केन्द्रीय भूमि एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, कोटा में अनुसंधानों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर एक किग्रा. दाने के उत्पादन हेतु ज्वार, सोयाबीन, मूंगफली, गेहूं, सरसों एवं चना क्रमशः 926, 1700, 2141, 856, 1929 व 999 लीटर पनी की आवश्यकता होती है। पानी के अभाव से फसलोत्पादन प्रभावित हुआ है।
जलसंरक्षण एवं भूमि संरक्षण
जलसंरक्षण की संरचनायें बनाते समय, पहाड़ी क्षेत्र, मैदानी क्षेत्र, बंजर एवं अनुपयोगी भूमि, चरोखर एवं पडत भूमि एवं कृषि भूमि के अनुसार अलग-अलग उपाय योजना करने होंगे।
पहाड़ी क्षेत्र में कण्टूर ट्रेन्चिंग. (10 फीट लम्बी 2 फीट चौड़ी 2 फीट गहरी खाई), बहुउद्देशीय एवं फलदार पौधों का रोपण एवं कण्टूर ट्रेन्च की मेड़ एवं खाली बेकार पड़ी जगह पर चारा एवं अन्य वनस्पतियों को उगाने से भूमि का कटाव रूक सकेगा साथ ही ढलान पर तेजी से बहते पानी को भी रूकने का अवसर मिलेगा एवं मिनी परकोलेशन टैंक (रिसन तालाब) वर्षा के बहते पानी को जमीन में ले जाने में सहायक होंगे।
पहाड़ी नालों पर बोल्डर के बंधान से तेज पानी के बहाव को रोककर जमीन के कटाव को रोका जाता है (लूज बोल्ड बांध) एवं वानस्पतिक अवरोध, नालाबन्धान, जिन नालों में पानी की गति तेज होती है, गेवियन पद्धति (तारों के चौकोर नाले में बोल्डर से बनी दीवार) के बंधान से पानी की गति को कम कर मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। स्टाप डैम जैसी संरचनाओं द्वारा भी जल स्तर बढ़ता है। बंजर एवं अनुपयोगी भूमि पर कण्टूर ट्रेन्चिंग, पौध रोपण, चारे, पेड़-पौधे एवं वनस्पतियों के बीज की बुवाई, चरोखर एवं पड़त भूमि पर चारागाह विकसित करने होंगे। उसी तरह कृषि योग्य भूमि पर मेड़बन्दी, समतलीकरण, खेत में तालाब, चारा उत्पादन, कृषि वानिकी एवं फसल उत्पादन के सफल उपाय है।
भूमि एवं फसल प्रबंध
भूमि एवं फसल प्रबंध के अन्तर्गत भूमि की उर्वराशक्ति को बनाये रखना, पौधों की प्रति इकाई उचित संख्या, फसलों की बुवाई का समय, खरपतवार नियंत्रण, गर्मी में गहरी जुताई इत्यादि सम्मिलित है। फसलें उन भूमियों को अच्छी तरह ढक लेती हैं तथा अपनी जड़ों के जाल में अच्छी तरह बांधें रखती हैं, जिनकी उर्वरता अपेक्षाकृत अधिक होती है। फसलों की प्रति इकाई आदर्श संख्या भी भूमि एवं जल संरक्षण में सहायक होती है। उर्वरकों की कमी की वजह से भी फसलें जमीन को पूरी तरह ढक नहीं पाती हैं। ग्रीष्म कालीन जुताई से वर्षा जल का अधिक से अधिक भाग जमीन में ही सोख लिया जाता है।
समय से बुवाई होने पर फसलों में समय पर वानस्पतिक वृद्धि होती है जो भूमि एवं जल संरक्षण में सहायक होती है। अतः भूमि एवं जल संरक्षण के साथ-साथ भरपूर उत्पादन के लिए भूमि एवं जल प्रबंध नितान्त आवश्यक है।
चित्रकूट में दीनदयाल शोध संस्थान ने सतना जिले के मझगवां विकासखंड में इन संरचनाओं के माध्यम से सफल प्रयोग किये हैं। जिसका परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र के 20 गांवों में जंगल पर निर्भर रहने वाले परिवार खेती से अच्छा उत्पादन कर रहे है।
‘रिज टू वैली’ पद्धति से वर्षा के जल का प्रबंधन करने का यह परिणाम हुआ कि 82 फीट गहरे कुंए जो इसके पूर्व मई-जून में सूख जाते थे, अब अल्प वर्षा में भी भरे रहते हैं। महज 5-6 फीट के रस्सी से पानी निकाला जा सकता है। वहीं हेण्डपंप एवं नलकूप से पूरे वर्षभर पेयजल प्राप्त हो पा रहा है।
इस क्षेत्र में जलस्तर 1996 से 2012 के बीच में मई माह 0.3 मि.ली. दिसम्बर में 1.80 मि.ली. रहता था। 2003 में क्रमशः 3.09, 4.36 एवं 2012 के मई में 3.96 एवं दिसंबर 4.58 मि.ली. तक पहुंच गया। इस प्रकार मई के जल स्तर में 3.00 मि.ली. एवं दिसंबर के जलस्तर में 2.82 मि.ली. की वृद्धि दर्ज की गई। इसी प्रकार इन 20 गांवों में फसल उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। जहां सन् 1996 में धान का प्रति हेक्टेयर पर उत्पादन मात्र 10.35 क्विंटल होता था, 2015 में वह 36.71 क्विंटल तक बढ़ गया। इसी प्रकार अरहर का उत्पादन 7.40 से 11.30 क्विंटल, चना 8.50 क्विंटल से 15.55, ज्वार 6.34 से 12.45, गेंहू 15.78 क्विंटल से 34.50, जौ 12.78 से 25.24 क्विंटल, सरसों 5.17 से 17.57 क्विंटल प्रति हेक्टेयर करना संभव हो सका है।
मध्यप्रदेश के सतना जिले के वनवासी बाहुल्य विकासखण्ड, मझगवां के अन्तर्गत 20 गांवों में ग्रामीणजनों की पहल एवं पुरूषार्थ के आधार पर भूमि एवं जल संरक्षण कार्यों के कारण भूमिगत जल स्तर में वृद्धि परिलक्षित हुई है। सिंचाई क्षेत्र में विस्तार हुआ है। उर्वरकों की खपत भी बढ़ी है। ग्रामीणों को अपने ही गांव में खेतों पर कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है। रहन-सहन, खान-पान एवं व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है। अतः स्पष्ट है कि प्राकृतिक संसाधन ही ग्रामीणजनों के समृद्धि व खुशहाल जीवन का टिकाऊ आधार है।
डा. वेद प्रकाश सिंह
दीनदयाल शोध संस्थान, कृषि विज्ञान केन्द्र, सतना