Wednesday, September 30, 2015

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 91वाँ स्थापना दिवस- विजया दशमी (22अक्टूबर 2015) के अवसर पर प्रकाशनार्थ वैदिक काल से ही लोक कल्याण के लिए सज्जन-शक्ति को संगठित व लोकमत को परिष्कृत करने की सनातन परम्परा इस देश में चली आ रही है। वेदों, पुरानों, यहाँ तक की श्रीमद्भगवद्गीता में भी हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है, अर्थात्- जो भी चिन्तन भारतीय ऋषियों ने किया है वह मानव मात्र के कल्याण के लिए किया। कई कारणो से बाद के काल खण्ड में ऐसे ऋषियों को हिन्दू ऋषि के रूप् में जाना जाने लगा -किन्तु जो भी जीवन - सिद्धान्त दिये गये वह सम्पूर्ण मानव- जाति के कल्याण के लिए ही हैं। जैसे न्यूटन का ‘‘ गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त ’’ सिर्फ न्यूटन के बगीचें में लागू नहीं होता है - वैसे ही हिन्दू-जीवन सिद्धान्त मात्र हिन्दुओं के लिए ही लागू नहीं होता। यह शुद्ध जीवन के अनुभूत सत्य पर आधारित है। भारत वर्ष में महापुरूषों द्वारा लोक शक्ति के जागरण व संस्कार की अखण्ड परम्परा रही है। रा. स्व. संघ की स्थापना इसी परम्परा में एक सशक्त मील का पत्थर है। संघ संस्थापक ने कोई नया सिद्धान्त व तत्व ज्ञान नहीं दिया - मात्र उन तत्व ज्ञान को कार्यरूप में परिवर्तित करने के लिए एक नयी कार्य पद्धति विकसित की। वास्तव में भगवान कृष्ण ने भी गीता के चैथे अध्याय के आरम्भ में ही अर्जुन को यह उपदेश दिया है कि वे उसको कोई नया योग नहीं बता रहे हैं- यह तो सदियों से चला आ रहा योग है- जो कालक्रम में शिथिल हो गया है। मैं उसी योग को पुनः बता रहा हूँ। डा0 हेडगेवार ने इसी प्रकार भारत राष्ट्र के सर्वागीण उन्नति के लिए संघ की स्थापना की, जो मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। संघ कोई पंथ व सम्प्रदाय न होकर एक संगठित कर्मयोगियों का नेटवर्क (संजाल) है जो निःस्वार्थ भाव से सज्जन शक्ति के कल्याण के लिए प्रयासरत है। संघ का विकास धर्म पर (पंथ व सम्प्रदाय नहीं) आधारित है- यहाँ धर्म अर्थात हिन्दू जीवन दर्शन कों कार्यरूप प्रदान करने की पद्धति ¼technique½। सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक ही परम् तत्व का अंश है फिर उनका परस्पर सम्बन्ध कैसा हो जिससे वसुधैव कुटुम्बकम का भाव उत्तरोत्तर विकसित हो। धर्म ब्रह्मंाड के हर तत्व के परस्पर अनूकूल एवं विकासमान व्यवहार की गारन्टी देता हैं। यही समग्र संतुलन स्थापित करता है अर्थात् व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण ब्रह्मंाड की धारणा करता है(Dharma upholds the dynamic equilibrium of Individual, society and eternity ) तत्व ज्ञान को मानने व व्यवहार में लाने वाले लोग न हों तो वह तत्व ज्ञान निरर्थक हो जाता है। संघ ने एक ऐसी कार्यपद्धति विकसित की है जिससे सामान्य लोगों में निष्काम भाव से भारत माता की सेवा करने का भाव विकसित होता है। भारत-माता संध का इष्ट है- इसके परम् वैभव से ही विश्व शांति, समृद्धि व वसुधैव कुटुम्बकम का लक्ष्य पूरा हो सकता है। संध की कार्य पद्धति की कुछ मूलभूत विशेषता है। भारत वर्ष में महापुरूषों की महामालिका रही है- किन्तु आम जनों में राष्ट्रीय चरित्र का अत्यन्त अभाव रहा है। अपने निजी स्वार्थ को राष्ट्रीय हित से अधिक महत्व दिया गया - फलतः विदेशी आक्रान्ताओं ने यहाँ की परस्पर फूट का लाभ उठा कर वर्षों तक शासन किया है। मुगल या अंग्रेजों का यहाँ पर शासन इसलिए नहीं था कि यहाॅ योद्धा नहीं थे, यहाँ समृद्धि नहीं थी, बल्कि यहाँ के राजा- महाराजाओं एवं आम नागरिक में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था। संध संस्थापक ने इसी कमी को दूर करने के लिए आम नागरिकों सहित नेतृत्व वर्ग में राष्ट्रीय चरित्र, सामूहिक जीवन दृष्टि व भाईचारा विकसित करने के लिए सामान्य सी दिखने वाली शाखा पद्धति का विकास किया। वे जानते थे कि मात्र राजनैतिक सत्ता परिवर्तन से यह सम्भव नहीं है। इसके लिए तो सामूहिक राष्ट्रीय संस्कार विकसित करना होगा। एक अभिनव दैनिक शाखा पद्धति ही इसका समाधान है। राष्ट्र गुरू के रूप में ‘‘भगवद्ध्वज ’’ को ही स्वीकार किया गया -इसके चार कारण हैं- 1. कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता है 2. संघ कोई सम्प्रदाय या पंथ नहीं हैं। 3. इस देश के सारे महापुरूष हमारे है और हम सब उनके आर्दशों से अनुप्रेरित हैं। 4. यह ध्वज शौर्य, त्याग और ज्ञान की अखण्ड परम्परा का प्रतीक है। दैनिक मिलनए विविध शारीरिक बौद्धिक व भक्ति पूर्ण गीतों /प्रार्थना के माध्यम से ही परस्पर सामूहिक राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सकता है। इस पद्धति में वैज्ञनिकता छिपी हुई है। जैसे एक छोटा सा बीज वृक्ष तभी बनता है जब उसकी सत्ता माटी में मिलती है - तभी वृक्ष में फल, फल से बीज, और फिर इस प्रकार बीज, वृक्ष-फल और पुनः बीज का यह अनन्त चक्र चलता रहता है। संध संस्थापक डा0 हेडगेवार ने अपने नाम,यश व वैभव की चिन्ता नही कर एक ऐसी सिद्ध परम्परा विकसित की जिसमें प्रति दिन संध की हजारों शाखाओं में एक नन्हा केशव, माधव अंकुरित होता है, पल्लवित होता है। यह अखण्ड परम्परा पिछले नब्बे वर्षों से चली आ रही है। एक निष्काम कर्म योगियों का संजाल-सतत् निर्मित हो रहा है। यहाँ यह भी रेखांकित करना आवश्यक होगा कि जहाँ भी इस परम्परा के विपरीत नाम- यश व वैभव कीे आकांक्षा से युक्त कार्यकर्ता हैं- वे टिकाऊ नही हो सकते और न वे संध की परम्परा को ही समृद्ध कर सकते है। जैसे लोहे के टुकड़े पर चुम्बक की बारबार रगड़ से यह चुम्बक बन जाता है, वैसे ही दैनिक शाखा मे सत्त अभ्यास से एक आर्दश युक्त ध्येयवादी कार्यकर्ता का विकास होता है। आखिर यह सम्भव कैसे हो पा रहा है- इसकी सफलता का मन्त्र भगवान गीता के ग्यारहवें अध्याय में निर्दिष्ट करते है। वे अर्जुन से कहते हैं अर्जुन तुम मुझे न तपस्या से, न दान से, न यज्ञ से जान सकते हो तुम तो अनन्य भक्ति से मुझे प्राप्त कर सकते हो। श्भक्त्या तु अनन्या शक्य अहं एवं विधोऽर्जुनश् संघ ने भारत माता की अनन्य भक्ति से यह विशाल स्नेह पर आधारित संगठन खड़ा किया है। स्नेह ही वह महारसायन है जिससे यह विशाल संगठन इस रूप में खड़ा हुआ है। नान्यः पन्थाः - और कोई रास्ता नहीं है। हे अर्जुन इसलिए तुम मेरे आदेश का पालन करो - स्वार्थरहित एवं वैररहित आचरण कर - सिर्फ और सिर्फ मेरी भक्ति कर। संध ने भारत माता को ही अपना इष्ट माना है। इस राष्ट्र को परम् वैभव के शिखर पर ले जाने के लिए प्रतिदिन प्रार्थना होती है। इसी से समरसता का भाव विकसित होता है। जात- पात, छुआछुत हिन्दु समाज की एक कलंकित व्यवस्था है-बिना इसको मिटाये शक्तिशाली हिन्दु संगठन सम्भव नहीं है। व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चरित्र्ा का निर्माण मात्र्ा भाषणों से सम्भव नहीं है इसके लिए सतत् अभ्यास की महती आवश्यकता है। पूज्य डा0 हेडगेवार ने मानव मन की इस कमजोरी के साथ-साथ हजारों वर्ष के विदेशी आक्म्ण से हुए संघर्ष के कारण भारतवर्ष में व्यक्तिगत और समूहगत विकृतियों का गम्भीर अध्ययन किया इसके गर्भ से युगानुकूल ष्दैनिक शाखा पद्धतिष् का आविष्कार हुआ। अर्जुन ने भी भगवान से अपने मन की चंचलता का उल्लेख करते हुए उसे नियंत्रित करने मे अपनी दुर्बलता को रेखांकित किया है।;चंचल हि मनः कृ णद्ध अध्याय - 6, लोक सं0 34 भगवान ने अर्जुन को मन नियंत्रित करने के लिए निःस्वार्थ अभ्यास (वैराग्य) के द्धारा इसे प्राप्त करने का महारसायन दिया है।(अध्याय-6) डा0 हेडगेवार ने इन्ही सनातन सूत्र को व्यवहारिक रुप प्रदान किया है। भगवद्घ्वज को केन्द्र मानकर दैनिक अभ्यास से सारे वंछित सद्गुणों के विकास की गारन्टी संघ की शाखा है। दैनिक प्रार्थना मे मातृभूमि की वन्दना और उसके परम् वैभव पर ले जाने का मंत्र्ा आज संघ की लगभग पच्चास हजार शाखाओं में गूॅजता है। शाखा में जहाॅ सामूहिक पुरुषार्थ की कामना की गयी है वहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि यह ईश्वरीय कार्य है। ष्त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयंष् हे ईश्वर -तुम्हारे ही कार्य के लिए हमने कमर कसी है। इस मंत्र्ा के सतत् अभ्यास से अहंकार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। शाखा का शारीरिक व बौद्धिक कार्यक्रम एक मौन साधना है-जिससे सात्विक सज्जन शक्तिष् निर्मित हाती है- जो राष्ट्र की हर समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करती है। संघ के अधिकारी कहते हैं- संघ सिर्फ शाखा लगायेगा- किन्तु शाखा में निर्मित स्वयंसेवक जीवन के हर क्षेत्र की समस्या के समाधान हेतु प्रयत्न करेगा। इसी का फल है कि आज विश्व भर में स्वयंसेवकों द्धारा लगभग पच्चास विविध क्षेत्रों में अपनी पहचान बनायी गयी है। ये विविध क्षेत्र्ा अपने में स्वायत्त हैं किन्तु संघ की राष्ट्रभक्ति के संस्कार ही उनकी प्रेरणा का केन्द्र है। आज संघ स्थापना के नब्बे वर्ष से भी अधिक हो गये हैं। अपनी इस यात्रा का सिंहावलोकन भी समय- समय पर किया जाता है। कोइ भी कार्य पुराना होने पर उसमे न्यूनता का आना स्वाभाविक है-यह न्यूनता कर्मकाण्ड को अधिक महत्व और उसके छिपे हुए मूल तत्व की उपेक्षा से आती है-अतः उसमें समयानुकूल परिवर्तन भी आवश्यक है। संघ इसके लिए आरम्भ से ही जागरुक है किन्तु असावधानी से दुर्घटना भी हो सकती है। इसकी उपेक्षा के फल भी भोगने पड़ते हैं इसलिए इसकी सावधानी जरुरी है। प्रभु नारायण अवध प्रान्त संघचालक, 1/339, विजयन्त खण्ड, गोमती नगर लखनऊ मो0 - 09794894400 email-prabhuji.srivastava@gmail.com

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
91वाँ स्थापना दिवस- विजया दशमी
(22अक्टूबर 2015) के अवसर पर प्रकाशनार्थ

वैदिक काल से ही लोक कल्याण के लिए सज्जन-शक्ति को संगठित व लोकमत को परिष्कृत करने की सनातन परम्परा इस देश में चली आ रही है। वेदोंपुरानोंयहाँ तक की श्रीमद्भगवद्गीता में भी हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं मिलता हैअर्थात्- जो भी चिन्तन भारतीय ऋषियों ने किया है वह मानव मात्र के कल्याण के लिए किया। कई कारणो से बाद के काल खण्ड में ऐसे ऋषियों को हिन्दू ऋषि के रूप् में जाना जाने लगा -किन्तु जो भी जीवन - सिद्धान्त दिये गये वह सम्पूर्ण मानव- जाति के कल्याण के लिए ही हैं। जैसे न्यूटन का ‘‘ गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त ’’ सिर्फ न्यूटन के बगीचें में लागू नहीं होता है - वैसे ही हिन्दू-जीवन सिद्धान्त मात्र हिन्दुओं के लिए ही लागू नहीं होता। यह शुद्ध जीवन के अनुभूत सत्य पर आधारित है।
                भारत वर्ष में महापुरूषों द्वारा लोक शक्ति के जागरण व संस्कार की अखण्ड परम्परा रही है। रा. स्व. संघ की स्थापना इसी परम्परा में एक सशक्त मील का पत्थर है। संघ संस्थापक ने कोई नया सिद्धान्त व तत्व ज्ञान नहीं दिया - मात्र उन तत्व ज्ञान को कार्यरूप में परिवर्तित करने के लिए एक नयी कार्य पद्धति विकसित की।
वास्तव में भगवान कृष्ण ने भी गीता के चैथे अध्याय के आरम्भ में ही अर्जुन को यह उपदेश दिया है कि वे उसको कोई नया योग नहीं बता रहे हैं- यह तो सदियों से चला आ रहा योग है- जो कालक्रम में शिथिल हो गया है। मैं उसी योग को पुनः बता रहा हूँ। डा0 हेडगेवार ने इसी प्रकार भारत राष्ट्र के सर्वागीण उन्नति के लिए संघ की स्थापना कीजो मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। संघ कोई पंथ व सम्प्रदाय न होकर एक संगठित कर्मयोगियों का नेटवर्क (संजाल) है जो निःस्वार्थ भाव से सज्जन शक्ति के कल्याण के लिए प्रयासरत है। संघ का विकास धर्म पर (पंथ व सम्प्रदाय नहीं) आधारित है- यहाँ धर्म अर्थात हिन्दू जीवन दर्शन कों कार्यरूप  प्रदान करने की पद्धति ¼technique½। सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक ही परम् तत्व  का अंश है फिर उनका परस्पर सम्बन्ध कैसा हो जिससे वसुधैव कुटुम्बकम का भाव उत्तरोत्तर विकसित हो। धर्म ब्रह्मंाड के  हर तत्व के परस्पर अनूकूल एवं विकासमान व्यवहार की गारन्टी देता हैं। यही समग्र संतुलन स्थापित करता है अर्थात् व्यक्तिपरिवारसमाजराष्ट्र एवं सम्पूर्ण ब्रह्मंाड की धारणा करता है(Dharma upholds the dynamic equilibrium of Individual, society and eternity )
तत्व ज्ञान को मानने व व्यवहार में लाने वाले लोग न हों तो वह तत्व ज्ञान निरर्थक हो जाता है। संघ ने एक ऐसी कार्यपद्धति विकसित की है जिससे सामान्य लोगों में निष्काम भाव से भारत माता की सेवा करने का भाव विकसित होता है। भारत-माता संध का इष्ट है- इसके परम् वैभव से ही विश्व शांतिसमृद्धि व वसुधैव कुटुम्बकम का लक्ष्य पूरा हो सकता है।
संध की कार्य पद्धति की कुछ मूलभूत विशेषता है। भारत वर्ष में  महापुरूषों की महामालिका रही है- किन्तु आम जनों में राष्ट्रीय चरित्र का अत्यन्त अभाव रहा है। अपने निजी स्वार्थ को राष्ट्रीय हित से अधिक महत्व दिया गया - फलतः विदेशी आक्रान्ताओं ने यहाँ की परस्पर फूट का लाभ उठा कर वर्षों तक शासन किया है। मुगल या अंग्रेजों का यहाँ पर शासन इसलिए नहीं था कि यहाॅ योद्धा नहीं थेयहाँ समृद्धि नहीं थीबल्कि यहाँ के राजा- महाराजाओं एवं आम नागरिक में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था।
                संध संस्थापक ने इसी कमी को दूर करने के लिए आम नागरिकों सहित नेतृत्व वर्ग में राष्ट्रीय चरित्रसामूहिक जीवन दृष्टि व भाईचारा विकसित करने के लिए सामान्य सी दिखने वाली शाखा पद्धति का विकास किया। वे जानते थे कि मात्र राजनैतिक सत्ता परिवर्तन से यह सम्भव नहीं है। इसके लिए तो सामूहिक राष्ट्रीय संस्कार विकसित करना होगा।
एक अभिनव दैनिक शाखा पद्धति ही इसका समाधान है। राष्ट्र गुरू के रूप में ‘‘भगवद्ध्वज’’ को ही स्वीकार किया गया -इसके चार कारण हैं- 1. कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता है 2.संघ कोई सम्प्रदाय या पंथ नहीं हैं। 3. इस देश के सारे महापुरूष हमारे है और हम सब उनके आर्दशों से अनुप्रेरित हैं। 4. यह ध्वज शौर्यत्याग और ज्ञान की अखण्ड परम्परा का प्रतीक है। दैनिक मिलनए विविध शारीरिक बौद्धिक व भक्ति पूर्ण गीतों /प्रार्थना के माध्यम से ही परस्पर सामूहिक राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सकता है। इस पद्धति में वैज्ञनिकता छिपी हुई है। जैसे एक छोटा सा बीज वृक्ष तभी बनता है जब उसकी सत्ता माटी में मिलती है - तभी वृक्ष में फलफल से बीजऔर फिर इस प्रकार बीजवृक्ष-फल और पुनः बीज का यह अनन्त चक्र चलता रहता है। संध संस्थापक डा0 हेडगेवार ने अपने नाम,यश व वैभव की चिन्ता नही कर एक ऐसी सिद्ध परम्परा विकसित की जिसमें प्रति दिन संध की हजारों शाखाओं में एक नन्हा केशवमाधव अंकुरित होता हैपल्लवित होता है। यह अखण्ड परम्परा पिछले नब्बे वर्षों से चली आ रही है। एक निष्काम कर्म योगियों का संजाल-सतत् निर्मित हो रहा है। यहाँ यह भी रेखांकित करना आवश्यक होगा कि जहाँ भी इस परम्परा के विपरीत नाम- यश व वैभव कीे आकांक्षा से युक्त कार्यकर्ता हैं- वे टिकाऊ नही हो सकते और न वे संध की परम्परा को ही समृद्ध कर सकते है। जैसे लोहे के टुकड़े पर चुम्बक की बारबार रगड़ से यह चुम्बक बन जाता हैवैसे ही दैनिक शाखा मे सत्त अभ्यास से एक आर्दश युक्त ध्येयवादी कार्यकर्ता का विकास होता है।
आखिर यह सम्भव कैसे हो पा रहा है- इसकी सफलता का मन्त्र भगवान गीता के ग्यारहवें अध्याय में निर्दिष्ट करते है। वे अर्जुन से कहते हैं अर्जुन तुम मुझे न तपस्या सेन दान सेन यज्ञ से जान सकते हो तुम तो अनन्य भक्ति से मुझे प्राप्त कर सकते हो। श्भक्त्या तु अनन्या शक्य अहं एवं विधोऽर्जुनश् संघ ने भारत माता की अनन्य भक्ति से यह विशाल स्नेह पर आधारित संगठन खड़ा किया है। स्नेह ही वह महारसायन है जिससे यह विशाल संगठन इस रूप में खड़ा हुआ है। नान्यः पन्थाः - और कोई रास्ता नहीं है। हे अर्जुन इसलिए तुम मेरे आदेश का पालन करो - स्वार्थरहित एवं वैररहित आचरण कर - सिर्फ और सिर्फ मेरी भक्ति कर। संध ने भारत  माता को ही अपना इष्ट माना है।
                इस राष्ट्र को परम् वैभव के शिखर पर ले जाने के लिए प्रतिदिन प्रार्थना होती है। इसी से समरसता का भाव विकसित होता है। जात- पातछुआछुत हिन्दु समाज की एक कलंकित व्यवस्था है-बिना इसको मिटाये शक्तिशाली हिन्दु संगठन सम्भव नहीं है। व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चरित्र्ा का निर्माण मात्र्ा भाषणों से सम्भव नहीं है इसके लिए सतत् अभ्यास की महती आवश्यकता है।                     पूज्य डा0 हेडगेवार ने मानव मन की इस कमजोरी के साथ-साथ हजारों वर्ष के विदेशी आक्म्ण से हुए संघर्ष के कारण भारतवर्ष में व्यक्तिगत और समूहगत विकृतियों का गम्भीर अध्ययन किया इसके गर्भ से युगानुकूल  ष्दैनिक शाखा पद्धतिष् का आविष्कार हुआ। अर्जुन ने भी भगवान से अपने मन की चंचलता का उल्लेख करते हुए उसे नियंत्रित करने मे अपनी दुर्बलता को रेखांकित किया है।;चंचल हि मनः कृ णद्ध
अध्याय - 6,  लोक सं0 34
भगवान ने अर्जुन को मन नियंत्रित करने के लिए निःस्वार्थ अभ्यास (वैराग्य) के द्धारा इसे प्राप्त करने का महारसायन दिया है।(अध्याय-6) डा0 हेडगेवार ने इन्ही सनातन सूत्र  को व्यवहारिक रुप प्रदान किया है।
भगवद्घ्वज को केन्द्र मानकर दैनिक अभ्यास से सारे वंछित सद्गुणों के विकास की गारन्टी संघ की शाखा है। दैनिक प्रार्थना मे मातृभूमि की वन्दना और उसके परम् वैभव पर ले जाने का मंत्र्ा आज संघ की लगभग पच्चास हजार शाखाओं में गूॅजता है। शाखा में जहाॅ सामूहिक पुरुषार्थ की कामना की गयी है वहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि यह ईश्वरीय कार्य है। ष्त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयंष्  हे ईश्वर -तुम्हारे ही कार्य के लिए हमने कमर कसी है। इस मंत्र्ा के सतत् अभ्यास से अहंकार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
शाखा का शारीरिक व बौद्धिक कार्यक्रम एक मौन साधना है-जिससे सात्विक सज्जन शक्तिष् निर्मित हाती है- जो राष्ट्र की हर समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करती है। संघ के अधिकारी कहते हैं- संघ सिर्फ शाखा लगायेगा- किन्तु शाखा में निर्मित स्वयंसेवक जीवन के हर क्षेत्र की समस्या के समाधान हेतु प्रयत्न करेगा। इसी का फल है कि आज विश्व भर में स्वयंसेवकों द्धारा लगभग पच्चास विविध क्षेत्रों में अपनी पहचान बनायी गयी है। ये विविध क्षेत्र्ा अपने में स्वायत्त हैं किन्तु संघ की राष्ट्रभक्ति के संस्कार ही उनकी प्रेरणा का केन्द्र है।
आज संघ स्थापना के नब्बे वर्ष से भी अधिक हो गये हैं। अपनी इस यात्रा का सिंहावलोकन भी समय- समय पर किया जाता है। कोइ भी कार्य पुराना होने पर उसमे न्यूनता का  आना स्वाभाविक है-यह न्यूनता कर्मकाण्ड को अधिक महत्व और उसके छिपे हुए मूल तत्व की उपेक्षा से आती है-अतः उसमें समयानुकूल परिवर्तन भी आवश्यक है। संघ इसके लिए आरम्भ से ही जागरुक है किन्तु असावधानी से दुर्घटना भी हो सकती है। इसकी उपेक्षा के फल भी भोगने पड़ते हैं इसलिए इसकी सावधानी जरुरी है।





प्रभु नारायण
अवध प्रान्त संघचालक,
                                           1/339, विजयन्त खण्डगोमती नगर                   लखनऊ 
मो0 - 09794894400

No comments: