भोपाल (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी जी ने कहा कि भारत को अपनी अस्मिता के आधार पर खड़ा करना होगा, किन्तु यह भारत को समझे बिना नहीं होगा. भारत क्या है, हम इसे नहीं समझे तो कुछ का कुछ बना बैठेंगे. सह सरकार्यवाह जी विधानसभा परिसर में भारत भवन न्यास और प्रज्ञा प्रवाह द्वारा आयोजित लोकमंथन के शुभारंभ सत्र में बीज वक्तव्य दे रहे थे. उन्होंने कहा कि भारत में कई तरह के संवाद की परंपरा है, जिसमें सर्वोत्तम वाद है क्योंकि इसमें उचित का स्वीकार और अनुचित का अस्वीकार होता है. कार्यक्रम में मुख्यअतिथि जूना पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी, राज्यपाल प्रो. ओपी कोहली जी, विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सीताशरण शर्मा जी, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी, सांसद एवं विचारक डॉ. विनय सहस्त्रबुद्धे जी, प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. सदानंद सप्रे सहित अन्य मौजूद थे.
सुरेश सोनी जी ने कहा कि भारत आज कोरी स्लेट नहीं है, बल्कि उसे दो तरह की स्थितियों का सामना कर पड़ रहा है. एक तरफ हजारों-हजार सालों की अनुभूतियों के आधार पर बने जीवनमूल्य हैं, सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रचनाएं हैं तो दूसरी ओर नई विचारधाराओं के आक्रमण के कारण यहां के समाज की रचनाओं को अपने अनुकूल ढालने की कोशिशें हैं. इसके चलते दोनों के बीच संघर्ष की स्थिति है. हमें भारत की वास्तविक पहचान को स्थापित करने के लिए देश को अपनी अस्मिता के आधार पर ही खड़ा करना होगा. ओझल हो चुके भारत को समझने का प्रयास करना होगा.
अपनी आत्मा का साक्षात्कार करे भारत
सन् 1921 में श्री रवींद्र नाथ टैगोर के भाषण का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत को अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना होगा, तभी हम उपनिवेशवाद के घातक प्रभावों से मुक्त हो सकते हैं.
सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि नवउदारवाद, भूमंडलीकरण आज उपनिवेशवाद के नए चेहरे हैं. साहित्य, संगीत, कला, मीडिया और समाज में इनके नकारात्मक प्रभाव दिखने लगे हैं. राष्ट्र की शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि राष्ट्र शब्द नेशन का अनुवाद नहीं है. क्योंकि हर शब्द के पीछे एक अलग परंपरा और जीवनदृष्टि होती है. पश्चिम के राष्ट्र जब सबल हुए तो उन्होंने समूची दुनिया में कालोनियां बनाई और उनका शोषण किया. जबकि भारतीय राष्ट्र जब सबल हुआ तो विदेशों में गए भारतीयों ने न सिर्फ उनकी अस्मिता का संरक्षण किया, उन्हें नई प्रविधियां सिखायीं और उनके विकास में योगदान किया. यह दो राष्ट्रों की प्रकृति का अंतर भी है. इसलिए अपनी अस्मिता के आधार पर ही इस राष्ट्र को खड़ा करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि हम विविधता से एकता को नहीं मानते, बल्कि हमारा कहना है एक ही अनेक हुआ है इसलिए इनमें विरोध नहीं है. इस विचार से समन्वय और सौहार्द बनता है. ये विविधताएं मिलजुल कर रहें तो सबका उत्थान होगा. परिवार को भारतीय संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण अंग बताते हुए कहा कि आज जरूरत इसी असली और खो गए भारत को तलाशने की है, टूटी हुयी कड़ियों को जोड़ने की है.
आत्मनिर्भर थे हमारे गांव
उन्होंने कहा कि हमारे गांव आत्मनिर्भर थे. वे स्वयं में एक पूर्ण ईकाई थे. सामान्य शब्दों में बहुत महत्वपूर्ण जीवन दर्शन लोगों के जीवन का हिस्सा था. इसलिए हम प्रकृति, पर्यावरण और परिवार सबकी रक्षा कर पाए. अस्तित्व, अस्मिता और अहंकार के तीन शब्दों को समझना जरूरी है. अस्तित्व तो आवश्यक है. अस्मिता की भी रक्षा होनी चाहिए. जबकि अहंकार से बचना होगा. अस्मिता जब अहंकार से जुड़ जाती है तो खतरनाक हो जाती है. इससे एकता को खतरा पैदा होता है और समाज विभाजित होता है. भारत ने इस भाव को समझ कर ही इसे साध लिया था, अन्यथा आजादी के बाद 565 राज्य बहुत आसानी के साथ भारत से जुड़ गए. इसका कारण हमारी अंतर्निहित विविधता और चेतना ही थी.
शब्दों, रंगों की भी है एक दुनिया
सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि शब्दों, रंगों, स्वरों, रेखाओं, भावों-भंगिमाओं की भी एक बड़ी दुनिया है. यह सब मिलकर भारत की हर विधा में अभिव्यक्त होते हैं. अकादमिक विश्लेषण से आगे बढ़कर एक नई शुरूआत करने की जरूरत है. इसलिए लोकमंथन सिर्फ चिंतकों-विचारकों-कलाकारों ही नहीं, बल्कि कर्मशीलों की उपस्थित से भी समृद्ध हुआ है.
विश्व को बाजार मानता है पश्चिम – स्वामी अवधेशानंद गिरी जी
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि महामंडलेश्वर जूना अखाड़ा स्वामी अवधेशानंद गिरी जी ने कहा कि हमारी संस्कृति लोकमन के साथ द्वेष रहित चिंतन, एकत्व, सामाजिक समरसता का चिंतन करती है. लोकमन आहत न हो इसका हमेशा विचार किया. लोगों के मन आहत न हों, यह हमारी सबसे बड़ी सोच है. हम पूरे विश्व को एक परिवार समझते हैं, जबकि पश्चिम इसे बाजार समझता है. भारतीय जीवन मूल्यों में सदैव समता, समानता और सामान्य जन, पशु-पक्षी के अधिकारों की चिंता रही है. इसलिए हम अन्न को औषधि और जल को देवता मानते हैं. आज जड़ों से उखड़ने का कारण हम अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हैं, किंतु कर्तव्यों के प्रति शिथिल होते जा रहे हैं. शुचिता और योग्यता के बिना भी पाने की लालसा बढ़ रही है. परंपरा और मूल्यों के प्रति उदासीनता हमारे लिए चिंता का विषय है. आज हम अच्छा बनने के लिए नहीं, बल्कि अच्छा दिखने के लिए जतन करते हैं. जबकि हमें अपने कर्मों से बड़ा बनना है, विचारों से बड़ा दिखना है. विचार और त्याग के आधार पर हम बड़े बनें तो ही सार्थकता है. लोकमंथन की सार्थकता इसमें है कि हम आनंद का विस्तार करने की विधियां खोज पाएं. अपने आध्यात्मिक स्वभाव के जागरण से यह संभव है. इससे हमें रसानुभूति और सुखानुभूति दोनों होगी.
उपनिवेशवादी राष्ट्रों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा वे राष्ट्र जमीनों को जीत पाए पर दिलों को नहीं जीत सके. हमारा देश अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है, इसलिए शासन भी ऐसे विमर्शों के लिए तैयार दिखता है. पहले भी हमारे शासक ही ऐसे विमर्शों का आयोजन करते थे, जहां सामाजिक संकटों के हल खोजे जाते थे.
जड़ों से उखाड़ रही है आधुनिक शिक्षा – प्रो ओपी कोहली जी
कार्यक्रम के अध्यक्ष राज्यपाल प्रो. ओपी कोहली जी ने कहा कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली हमें जड़ों से उखाड़ रही है. उपनिवेशवाद से लड़ने के लिए हमें प्रबल स्वदेशी आंदोलन की जरूरत है. महर्षि अरविंद का स्मरण कर कहा कि हमें अपनी जड़ों की तरफ लौटना होगा, परिर्वतन को स्वीकार करना होगा. भारत एक प्रकार के उपनिवेशवाद का शिकार रहा है और अब एक नए तरह के उपनिवेशवाद का सामना कर रहा है. भक्ति आंदोलन का उल्लेख करते हुए कहा कि इसने हमें सांस्कृतिक पराजय से बचाया, भले हम राजनीतिक रूप से उस समय पराजित हुए हों. हमारी संस्कृति में सार्वभौमिकता के तत्व निहित हैं. भारत ने कभी संकीर्णता का रास्ता नहीं अपनाया. एक परमतत्व सबमें व्याप्त है, हम यही मानते हैं. भारत जैसा देश जो विविधताओं का केंद्र है, इसलिए बचा रहा क्योंकि हमारे पास एक सनातन संस्कृति थी.
लोकमंथन से निकलेगा अमृत – शिवराज सिंह चौहान जी
कार्यक्रम के प्रारंभ में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जी स्वागत भाषण में कहा कि सवा साल में बौद्धिक विमर्शों की कड़ी में यह छठवां आयोजन है. भारत की प्राचीन और महान संस्कृति का पुर्नपाठ हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है. जीवन, परंपरा और लोकजीवन से जुड़कर हो रहा यह लोकमंथन लोकजीवन के अनेक रंगों से भरा-पूरा है. यह बात हमें बताती है कि पैसे, पद, सुविधा और भौतिकता से वास्तविक आनंद नहीं मिलेगा. इस दौड़ में लगी दुनिया का भारत ही वास्तविक मार्गदर्शन कर सकता है. लोकमंथन में हमारे समय की चुनौतियों पर व्यापक विमर्श से अमृत निकलेगा. यह अमृत ही हमारे लिए पाथेय होगा. भारत के रास्ते पर चलकर ही दुनिया में सुख और शांति स्थापित की जा सकती है. क्योंकि हम सब विविधताओं और विचारों को स्वीकारने वाले लोग हैं औऱ पूरी दुनिया को एक परिवार की तरह देखते हैं. उन्होंने कहा कि भारत का तो 5000 साल का ज्ञात इतिहास ही है. वेदों की ऋचाएं, तक्षशिला और नालंदा के विश्वविद्यालय हमें हमारी ऊंचाई बताते हैं. स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में अपने व्याख्यान में साफ कहा था कि हर मार्ग से आप पहुंचते परमात्मा के पास हो. यह संस्कृति जियो और जीने दो का मंत्रजाप करती है तो वसुधैव कुटुम्बकम् उसकी विरासत का हिस्सा है. उज्जैन में हुए विचार कुंभ के 51 अमृत बिंदु हमने पूरी दुनिया में पहुंचाए, लोकमंथन से निकले अमृत को भी प्रचारित और प्रसारित करेंगे.
हमें उम्मीदों से देख रही है दुनिया – विनय सहत्रबुद्धे जी
विचारक एवं सांसद डॉ. विनय सहत्रबुद्धे जी ने लोकमंथन की संकल्पना पर प्रकाश डालते हुए कहा कि तीन दिवसीय विमर्श में उपनिवेशवाद और औपनेवेशिक मानसिकता का लेखा-जोखा लेने के साथ-साथ अस्मिता और अविष्कार से जुड़े विषयों पर बात होगी. यह एक सामूहिक चिंतन है जो स्वदेशी को युगानुकूल और विदेशी को स्वदेशानुकूल बनाने की भावना से प्रेरित है. दुनिया भारत को उम्मीदों से देख रही है. हमारा दायित्व है कि हम इस जिम्मेदारी को स्वीकारें.
कार्यक्रम का संचालक डॉ. गीता भट्ट ने किया तथा आभार ज्ञापन प्रमुख सचिव संस्कृति मनोज श्रीवास्तव ने किया. कार्यक्रम के अंत में सभी अथितियों को संस्कृति मंत्री सुरेंद्र पटवा ने प्रतीक चिन्ह भेंट किए.
मूल चरित भारतीय नहीं – राजीव मलहोत्रा
कालोनाईजिंग वह बीमारी है, जिसे हम छोड़ना चाहते है, छोड़ना है. लेकिन उसके पहले वह है क्या, कितने प्रकार का है, यह समझना होगा. इनके प्रकार व अंतर को जानना जरुरी है. भारतीय इंडोलॉजी में यह मान्यता है, हम अच्छे हैं, हमारा दिल अच्छा है तो हमें दूसरे की क्या चिंता. किंतु 18वीं सदी के अंत में जो इंग्लैड से पढ़कर लौटे, उनमें चाहे अंबेडकर हों या कोई अन्य उनका चिंतन का मूल भारतीय नहीं था. पश्चिम इंडोलॉजी उस एप्प की तरह है, जिसे हम डाउनलोड अपनी इच्छा से करते हैं, किन्तु एक्टिव होने के बाद वह कार्य अपने अनुसार करता है. अब अगर इसे हटाना है तो हम भारतीय ही हटा सकते हैं. चीन, रूस या जापान अपनी पहचान के प्रति बेहद सजग हैं. लेकिन हम चाहे मुगल कालोनाईजेशन की बात करें या अंग्रेज, हमारी भाषा में विदेशी शब्दों की भरमार हो गई है. भाषा ही नहीं हमारे विचार भी आयातित हैं. वह चाहे मार्क्सवाद हो, चाहे चारु मजूमदार का नक्सलवाद हो. मजेदार यह है कि वामपंथियों ने सबसे पहले डिकालोनाइजेशन की बात की, लेकिन उन्होंने वेस्ट की आलोचना करने के साथ-साथ भारत पर भी आक्रमण किया. वनवासियों को कहा कि तुम्हें हिन्दुओं ने गुलाम बना कर रखा है तो रावण को संत प्रदर्शित करते हुए कहा कि तुम्हें उत्तर ने गुलाम बना कर रखा. इस प्रकार उन्होंने विभेद को ब़ढ़ावा दिया. दुर्भाग्य से देश में कन्फयूज्ड मेजोरिटी अधिक है. हम भारत को तीन हिस्सों में बंटा देखते हैं – एंटी हिन्दू, वैदिक हिन्दू, शेष कन्फयूज्ड. हमारी सभ्यता पुरातन जरूर है, पर हम 80 प्रतिशत घट चुके हैं. अफगानिस्तान, ईरान, श्रीलंका, जो पहले कभी भारत के अंग थे, अब नहीं है. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हम कभी खत्म नहीं हो सकते. अब इसका उपाय क्या ? हमें ताली बजाकर खुश होने के स्थान पर स्वयं खिलाड़ी बनना होगा. कुरुक्षेत्र में उतरना होगा. इसके लिए चार टास्क हो सकते हैं. प्रति उत्तर के लिए पुस्तकों का प्रकाशन, परंपराओं का संरक्षण, आनलाईन प्रशिक्षण और सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग इनके माध्यम से समाज का हर व्यक्ति इस कुरुक्षेत्र में सहभागी हो सकता है.
सांस्कृतिक दासता को समझना मुख्य चुनौती – प्रो. राकेश सिन्हा
राकेश सिन्हा जी ने कहा कि 70 वर्षों से विश्वविद्यालयों में पढ़कर निकले लोंगों की तुलना में भारत के शेष करोड़ों लोगों की जीवन दृष्टि में भारतीय दर्शन विलुप्त नहीं हुआ, वह उनके मन में है. विलुप्त हुआ है तो हम जैसे लोगों के मन में. 1931 में श्री कृष्णचंद्र भट्टाचार्य ने लिखा कि राजनैतिक दासता दिखाई पड़ती है, किन्तु सांस्कृतिक दासता बिना विमर्श या वाद प्रतिवाद के हम स्वीकार कर लेते हैं. इस उपनिवेशवाद को समझना ही मुख्य चुनौती है. संत तुकाराम, रामदास, कबीर, तुलसी बिना किसी औपचारिक शिक्षा के यह लड़ाई लड़ चुके हैं. अफ्रीका में 1986 में अंग्रेजी के स्थापित लेखक उबंतु ने तय किया कि अब मैं अंग्रेजी में नही लिखूंगा, लिखूंगा तो अपनी मातृभाषा में. यह वह सभ्यता थी, जिसका आधार था – मैं इसलिए हूं क्योंकि तुम हो. सह अस्तित्व पर जोर देने वाली इस सभ्यता का क्या हश्र किया, कालोनाइजेशन ने अपनी भाषा न बोलने पर बच्चों के नंगे बदन पर पांच बेंत मारी जाती थी या गले में पट्टी डाली जाती थी, जिस पर लिखा होता था आइ एमए डंकी. भारत में स्वतंत्रता का आंदोलन, जिसमें चाहे महात्मा गांधी का सत्याग्रह या अहिंसा हो, चाहे क्रांतिकारियों का, उसके मूल में भारतीय संस्कृति की आत्मा थी. किन्तु ब्रिटिश ने उन लोगों को आगे बढ़ाया जो आराम की स्थिति में थे.
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