Wednesday, February 22, 2017

आर्थिक मॉडल में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को भी समाहित करने की आवश्यकता – दत्तात्रेय होसबले जी

नई दिल्ली. भारत अपने शासन और नीतियों के बल पर प्रगति कर रहा है और भारतीय आर्थिक व सामाजिक विकास के वैश्विक कारकों के अनुसार आकार ग्रहण कर कार्यशील हो रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले जी ने कहा कि अपने विकास के एजेंडे में हमें सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को नहीं छोड़ना चाहिए. सह सरकार्यवाह भारत नीति प्रतिष्ठान (इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन) द्वारा आयोजित प्रथम राष्ट्रीय आर्थिक सम्मेलन के उद्घाटन कार्यक्रम में संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा कि कृषि, खपत और प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्रों को केवल आर्थिक समीकरणों के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी देखा जाना होगा, क्योंकि ये पारिस्थितिकी तन्त्र का अभिन्न अंग हैं. हमें आँखें बन्द कर विकसित देशों के आर्थिक मॉडल का पालन नहीं करना है. भारत गांवों का राष्ट्र है और किसानों के लिए अवसर विकसित और सुनिश्चित करना सरकार की पहली आवश्यकता है.
आईपीएफ के मानद निदेशक प्रो. राकेश सिन्हा जी ने कहा कि भारत लम्बे काल से अपनी आन्तरिक शक्तियों के बल पर जीवित रहा है और अपने अविभाजित दृष्टिकोण के कारण कई सामाजिक और आर्थिक संघर्षों से बचा रहा है. नव उदारवादी दृष्टिकोण और आर्थिक विकास का पूंजीवादी मॉडल दोबारा यहां प्रवेश कर रहा है. जीवन और जीवन की सुरक्षा का मूल्य एक नीति या मॉडल की तुलना में कहीं अधिक है. हमें सभी नागरिकों के बुनियादी संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करना होगा और केवल उत्पादकता के साथ उसका आंकलन नहीं कर सकते. उन्होंने कुछ मुद्दों को राजनीति से पृथक करने की जरूरत पर जोर दिया.
सम्मेलन के संयोजक गोपाल कृष्ण अग्रवाल जी ने कहा कि हम टिकाऊ विकास पर चर्चा के उद्देश्य से कार्य कर रहे हैं. टिकाऊ विकास की अवधारणा का प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन, आबंटन, बाजार की शक्तियों, पानी की उपलब्धता, खाद्य सुरक्षा के प्रबन्धन, कौशल विकास और रोजगार सृजन, श्रम कानून सुधार, पूंजी निर्माण, बैंकिंग, वित्त और अन्य क्षेत्रों से गहन सम्बन्ध है. इस दृष्टि से एक व्यापक समीक्षा के उद्देश्य से हमें साथ आने, सभी हितधारकों को न्यायसंगत रीति से जोड़ने, दिशा और नीति की दृष्टि से मूल्यवान जानकारियों व पहल के साथ एक अधिक समग्र दृष्टिकोण और मॉडल के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि भारत प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों, उच्च कोटि की उद्यमशीलता और गौरवशाली बौद्धिक पूंजी से सम्पन्न है. हम अपनी स्वदेशी समझ के अनुसार, सभी हितधारकों को साथ लेकर एक सकारात्मक संवाद के साथ अग्रसर हो सकते हैं.
कृषि पर पहले सत्र में वक्ताओं में भूमि पट्टे पर नीति आयोग के टास्क फोर्स के तजमुल हक, सीएसीपी के अध्यक्ष विजय पॉल शर्मा, सीयूटीएस के महासचिव प्रदीप मेहता, भारत कृषक समाज के विलास सोनवणे थे. वक्ताओं ने किसानों की आय को द्विगुणित करने, खाद्य मुद्रा स्फीति के प्रबन्धन, भूमि सुधार डिजिटीकरण और पट्टे पर देने के मुद्दों पर चर्चा की. हमारा कृषि उत्पादन पर्याप्त है, लेकिन भंडारण, गुणवत्ता और बाजार लिंकेज बड़े मुद्दे हैं, जिनमें संस्थागत और निजी भागीदारी के ऊंचे स्तर की जरूरत है. मामला केवल खाद्य मुद्रास्फीति प्रबन्ध का नहीं, बल्कि उसे सीमा में रखने के बारे में है. जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की भागीदारी और शहर की ओर गमन को पलटने के लिए भूमि सुधार आवश्यक है. यह भी निष्कर्ष निकला कि खाद्य मुद्रास्फीति व्यापारियों के लिए ही फायदेमन्द है, किसानों के लिए नहीं. जरूरी नहीं कि उदारवादी नीतियों से लाभ हो और किसानों के लिए प्रभावी हो. सत्र में व्यवस्था में संस्थागत बाधाओं में अवरोधों पर भी अपने विचार रखे. अगर हम किसानों की आय में वृद्धि करना चाहते हैं, तो हमें एक समन्वित तरीके से बुनियादी ढांचे, संस्थाओं, नीतियों, प्रौद्योगिकी और मूल्य निर्धारण के मुद्दों को देखना होगा. बाजार लिंकेज किसानों को एक सीधी पहुँच प्रदान करने और बिचौलियों की कई परतों में कटौती करने के लिए के लिए अनिवार्य है.
प्राकृतिक संसाधनों जैसे संवेदनशील विषय पर आईआईएम बेंगलुरु के अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर प्रो. भरत झुनझुनवाला के पैनल ने कहा कि हम पूरे विश्वास के साथ पाश्चात्य मॉडल का अनुसरण कर रहे हैं. हमें सराहना करनी चाहिए कि भारतीय समाज प्राकृतिक संसाधनों की देखभाल कर सकता है, न कि सरकारें.
डॉ राम सिंह दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर और डॉ. ज्योति शुक्ला अध्यक्ष राजस्थान राज्य वित्त आयोग और दीवान सिंह ने पानी के मुद्दों और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में जनजातियों की भूमिका पर प्रकाश डाला और कहा कि सरकार ही उनके मार्ग में बाधा डालती है. हमें भारत के लोगों पर भरोसा है और उन्हें विकास में भागीदार बनाने की जरूरत है, सरकारी मशीनरी यह नहीं कर सकते हैं. राजनीतिक हस्तक्षेप किसानों के नहीं उद्योगपतियों के हित में होता है. उन्होंने बताया कि अदालत ने 25,000 करोड़ रुपये के एक व्यापार मॉडल के खिलाफ INR 1,00,000 का जुर्माना ठोक दिया, जिसे किसी भी तरह से न्याय कहा नहीं जा सकता है.
रेल मंत्री सुरेश प्रभु जी ने कहा कि विकास की समीक्षा की जरूरत है और टिकाऊ विकास के सामाजिक पहलुओं के बिना काम नहीं कर सकता. कृषि विकास को जंगल, खेत, और पानी के साथ जोड़ा जाना चाहिए. अन्य आर्थिक मॉडल सीधे-सीधे भारतीय सन्दर्भ में फिट नहीं हो सकता. पर्यावरण और अपपदार्थों के साथ आर्थिक प्रगति और सामाजिक मूल्यों के समन्वय के उदाहरण हैं. हमें उन्हें पृथक खानों में बांटकर फिर उन्हें एकीकृत करने की जरूरत नहीं है.
मनीष कुमार एमडी, एनएसडीसी ने युवा पीढ़ी में कौशल का निर्माण करने के लिए सरकार के ध्यान पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि राज्यों में समान गम्भीरता के साथ मुद्दों को पहचान रहे हैं और हम कौशल की पहचान, विकास और प्रमाणन के लिए संस्थानों का एक सुदृढ़ नेटवर्क बना रहे हैं. एनआईओएस प्रमुख डॉ. चन्द्र बी. शर्मा ने कहा कि सरकारी स्कूलों के लिए बुनियादी ढांचे को बनाने और विकासशील शिक्षा के क्षेत्र में भारी व्यय हुआ है, लेकिन जीने के लिए या कौशल के लिए ज्ञान हस्तांतरण नहीं कर पाये. यदि हमने ज्ञान और कौशल की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ नहीं किया तो एक विस्फोटक सामाजिक स्थिति सामने आएगी.
दलित चैंबर ऑफ कॉमर्स के संस्थापक मिलिन्द काम्बले जी ने कौशल, उद्योग और शिक्षा, काम व असंगठित क्षेत्र में रोजगार की संस्कृति को प्रेरित करने के मुद्दे पर चर्चा की. उन्होंने कहा कि यह आकार दृष्टि से सबसे बड़ा है क्योंकि एक विशाल जनसंख्या को त्वरित सम्मान प्रदान करने वाला मुद्दा है. एमआर माधवन जी ने कहा कि कानूनों के मामले में हम आज भी अंग्रेजों के युग में जी रहे हैं और हमें उनकी समीक्षा और उनमें कटौती करनी होगी. जो कानून हमें विरासत में मिले हैं, उनकी संख्या और जटिलता काफी है और यदि उन्हें ज्यों का त्यों बनाए रखा जाये तो हम सकारात्मक ढंग से आगे नहीं बढ़ सकते हैं. उन्होंने नए श्रम कानूनों की जरूरत पर भी जोर दिया.
डॉ. इला पटनायक की अध्यक्षता में बैंकिंग और वित्त पर सत्र में नियन्त्रण और संस्थागत स्वतन्त्रता के बुनियादी संघर्ष पर विचार प्रस्तुत किए. हमें संस्थानों को मुक्त वातावरण में काम करने की अनुमति देनी चाहिए. डॉ. अजीत रानाडे जी मुख्य अर्थशास्त्री बिड़ला समूह ने कहा कि भारत को परिभाषित करने और पूंजी निर्माण के विभिन्न चैनल बनाने के लिए, अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी निर्माण पर चर्चा जरूरी है. अमेरिका शोध संकेत देते हैं कि लगभग 70 प्रतिशत पूंजी मानव पूंजी से आती है, जिसकी हम आर्थिक गणना में अनदेखी करते हैं. उन्होंने कहा कि चीन की अर्थव्यवस्था निवेश आधारित है और हमें बाकी दुनिया से भी योग्य तौर-तरीके सीखने चाहिए. प्रो. वरदराज बापट आईआईटी मुम्बई ने वित्तीय समावेशन पर विचार प्रस्तुत किए और बिना विभिन्न अन्य मॉडलों की अनदेखी किए स्व सहायता समूह के मॉडल के पक्ष में तर्क दिया. उन्होंने सुशासन और बैंकिंग और गैर-बैंकिंग मार्गों के माध्यम से वंचित तबकों के लिए वित्तीय समर्थन के मुद्दों पर जोर दिया. राजकुमार अग्रवाल जी अध्यक्ष बीवीएसएस, प्रो कपिल कपूर पूर्व प्रो वाइस चांसलर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने भी विचार प्रस्तुत किए.
भारत नीति प्रतिष्ठान के मानद निदेशक प्रो राकेश सिन्हा जी ने कहा कि हम आर्थिक और सामाजिक विकास के कथानक में प्रवेश कर रहे हैं, जो राजनीति से परे है. आईपीएफ ने हमेशा उच्चतम ईमानदारी के साथ बौद्धिक बहस का प्रयास किया है, जिनका सन्दर्भ वक्ताओं द्वारा निर्धारित किया जाता है. किसी भी अल्पकालिक लाभ के लिए विकृत नहीं किए जाते. सम्मेलन के संयोजक श्री गोपाल अग्रवाल ने सम्मेलन की रिपोर्ट प्रस्तुत की. उन्होंने सम्मेलन में वक्ताओं तथा भाग लेने वालों का आभार व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि सम्मेलन में विषय बड़े प्रासंगिक तरीके से उठाए गए और सभी वक्ताओं ने अपने वक्तव्यों के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत किए. प्राकृतिक संसाधन सबसे अधिक स्थानीय समुदाय के हाथों में सुरक्षित रहते हैं और सरकार को अपनी नीतियों में इसका समर्थन करना चाहिए. सम्मेलन से जुड़े सभी संस्थानों के योगदान और उनकी सहायता का आभार माना.

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