नई दिल्ली. ब्रिटिश शासन काल से पहले भारत कहीं ज्यादा बेहतर शिक्षित था, लेकिन अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा व्यवस्था का ढांचा ध्वस्त कर दिया. प्राचीन काल में तक्षशिला जैसे ज्ञान के केंद्र सभी प्रमुख सभ्यताओं में आदान-प्रदान का केंद्र बिंदु था, लेकिन आज हम उस व्यवस्था से कोसों दूर हैं. जरूरत साक्षरता के साथ शिक्षित करने की भी है. गुजरात के ऑरो विश्वविद्यालय के प्रबंधन बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. शैलेंद्र राज मेहता तीन दिवसीय ‘भारत-बोध’ सम्मेलन के दूसरे दिन के प्रारंभिक सत्र में संबोधित कर रहे थे.
सम्मेलन का आयोजन भारतीय शिक्षण मंडल व इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में किया गया है. अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी व अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के उपकुलपति अनुनागर बेहर ने कहा कि शिक्षा की बात करें तो सबसे महत्वपूर्ण शिक्षकों की भूमिका है. वे मूल्यों का संवर्धन करने में मुख्य भमिका निभाते हैं. किसी शिक्षा संस्थान का आंकलन करना हो तो मूल्यों के संवर्धन करने में उसकी भूमिका को भी कसौटी बनाना चाहिए. भारत को आगे ले जाने की राह पर सबसे बड़ी बाधाओं में एक है, शिक्षा का व्यवसायीकरण. उन्होंने कहा कि एक बेहतर समाज तभी बन सकता है, जब शिक्षकों का सम्मान हो.
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक व प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रोफेसर जेएस राजपूत ने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में शिक्षकों की भूमिका पर बल दिया. पश्चिम की विचारधारा की रौ में हम बह गए और आजादी के बाद अपने देश की निहित शक्तियों को विकास के नाम पर विस्मृत कर दिया. हम भूल गए कि हमारे यहां शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण था. अब हालत यह है कि शिक्षा से हम फायदा कमाना चाहते हैं. डॉ. भगवती प्रसाद ने कहा कि प्रकृति और मानव में परस्पर जिस सामंजस्य की आवश्यकता है, उसके बारे में आधुनिक भारत में एकात्म मानववाद की विचारधारा ने समाधान दिया है.
प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने कहा कि भारतीय कलाएं अध्यात्म से जुड़ी हैं और जीवन को बेहतर व संपूर्ण ढंग से जीने का ढंग सिखती हैं. हमारे यहां कला जीवन और समाज के प्रति वृहद परिप्रेक्ष्य का निर्माण करती हैं और बड़े सरस तरीके से मानव मात्र को आत्म ज्ञान की ओर ले जाती हैं.
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