नई दिल्ली. विश्व हिन्दू परिषद में कार्यरत वरिष्ठ प्रचारक श्रीधर हनुमंत आचार्य का जन्म रक्षाबंधन 28 अगस्त, 1928 को मंगलोर (कर्नाटक) में हुआ था. 1946 में उनकी संघ यात्रा प्रारम्भ हुई, जो जीवन की अंतिम सांस तक चलती रही. प्रभात और सायं शाखा के मुख्यशिक्षक रहने के बाद वे अलीबाग, चोपड़ा, धनुपाली गांव आदि में विस्तारक रहे. विज्ञान और कानून में स्नातक श्रीधर जी ने श्री दामोदाते की प्रेरणा से 1950 में अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया. उस समय वे दस कार्यकर्ताओं के साथ नागपुर आये थे.
उन्हें सर्वप्रथम उड़ीसा में बालांगीर जिले का काम मिला. बाबूराव पालधीकर वहां प्रांत प्रचारक थे. उन दिनों संघ के पास साधन के नाम पर कुछ नहीं था. किसी तरह उन्होंने 12 रु. महीने पर एक कमरा लिया. उड़ीसा में महाराष्ट्र के लोगों को वर्गी (लुटेरा) माना जाता था. पुलिस का व्यवहार भी ठीक नहीं था. थाने में हर दिन हाजिरी देनी पड़ती थी. एक दिन कमरे का ताला तोड़कर सब सामान चुरा लिया गया. फिर भी वे लोगों से सम्पर्क करते रहे. 1951 में उनके प्रयास सफल हुए और एक मंदिर में शाखा लगने लगी. लाठी सिखाने के कारण लोग उन्हें ‘बॉडी मास्टर’ कहते थे. क्रमशः उन पर जिला और विभाग प्रचारक के नाते कालाहांडी और कोरापुट का काम भी रहा. साधनों के अभाव में अधिकांश प्रवास पैदल या साइकिल से ही होता था. उन्होंने क्रमशः 1949, 50 तथा 55 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया.
1965 में वे उड़ीसा में जनसंघ के प्रांत संगठन मंत्री बने. आपातकाल में वे ‘मीसा’ बन्दी के नाते कटक जेल में रहे. वे 1977 में संबलपुर विभाग प्रचारक तथा 1980 में ‘संस्कृति रक्षा योजना’ के प्रांत संयोजक बने. संस्कृत के प्रति रुचि देखकर 1984 में उन्हें ‘संस्कृत प्रशिक्षण वर्ग’ लगाने का तथा फिर 1986 में वाराणसी में ‘विश्व संस्कृत प्रतिष्ठानम्’ का कार्य मिला. 1990 में उन्हें लखनऊ में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा संचालित सत्संगों की देखभाल के लिये भेजा गया. 1993 में वे विहिप. के मुख्यालय (संकटमोचन आश्रम) में आ गये तथा प्रकाशन संबंधी न्यास के मंत्री बनाये गये.
दिल्ली रहते हुए श्रीधर जी नागपुर गोशाला में निर्मित दवाएं मंगाकर बेचते थे. इसी दौरान वे ग्राहक को संघ विचार भी ठीक से समझा देते थे. आश्रम की गोशाला से एकत्र गोमूत्र तथा कंडे वे निःशुल्क बांटते थे. वे पत्र, पत्रिका तथा निमंत्रण पत्र आदि की रद्दी को बेचकर वह राशि गोसेवा में लगा देते थे. आश्रम के निकटवर्ती साप्ताहिक बाजार में वे पत्रक आदि बांटते रहते थे. आश्रम में तैनात सरकारी सुरक्षाकर्मी भी उनका बहुत आदर करते थे.
श्रीधर जी का अध्ययन बहुत गहरा था. वे हिन्दी, मराठी, कन्नड़, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला, ओडिया आदि कई भाषाएं जानते थे. आश्रम में कई राज्यों से पत्र-पत्रिकाएं आती हैं. उनमें से काम की चीज निकालकर वे संबंधित कार्यकर्ता को दे देते थे. उनका जीवन बहुत सादा था. वे प्रायः साबुन, तेल आदि भी प्रयोग नहीं करते थे. गोमूत्र का प्रतिदिन सेवन करते थे, तथा गोमूत्र से स्नान भी करते थे. अपने बाल भी वे खुद ही काट लेते थे. गर्मी में वे आधी धोती पहनते और आधी ओढ़ लेते थे. ऐसे में किसी भी अव्यवस्था तथा फिजूलखर्ची से वे विचलित हो जाते थे. कुछ वर्ष से वे मधुमेह तथा उच्च रक्तचाप आदि से पीडि़त थे. कभी-कभी तो वे मस्तिष्क से नियंत्रण ही खो बैठते थे.
28 फरवरी, 2015 को संकटमोचन आश्रम में ही उनका निधन हुआ. एक सप्ताह पूर्व से ही वे अन्न-जल लेना छोड़ चुके थे. उन्होंने कई वर्ष पूर्व ‘दधीचि देहदान समिति’ का संकल्प पत्र भरा था. अतः निधन के बाद उनके नेत्र और फिर पूरी देह चिकित्सा कार्य के उपयोग हेतु अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को दे दिया गया.
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