नई दिल्ली. अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध भारत के चप्पे-चप्पे पर वीरों ने संग्राम किया है. हिमाचल प्रदेश की नूरपूर रियासत के वजीर रामसिंह पठानिया ने वर्ष 1848 में ही स्वतन्त्रता का बिगुल बजा दिया था. उनका जन्म वजीर शामसिंह एवं इन्दौरी देवी के घर वर्ष 1824 में हुआ था. पिता के बाद वर्ष 1848 में वजीर का पद सम्भाला. उस समय रियासत के राजा वीरसिंह का देहान्त हो चुका था. उनका बेटा जसवन्त सिंह केवल दस साल का था. अंग्रेजों ने जसवन्त सिंह को नाबालिग बताकर राजा मानने से इन्कार कर दिया तथा उसकी 20,000 रुपये वार्षिक पेन्शन निर्धारित कर दी. इस पर रामसिंह ने अंग्रेजों की मनमानी का विरोध किया. उन्होंने जम्मू से मनहास, जसवां से जसरोटिये, अपने क्षेत्र से पठानिये और कटोच राजपूतों को एकत्र किया. पंजाब से सरनाचन्द 500 हरिचन्द राजपूतों को ले आया. 14 अगस्त, 1848 की रात में सबने शाहपुर कण्डी दुर्ग पर हमला बोल दिया. वह दुर्ग उस समय अंग्रेजों के अधिकार में था. भारी मारकाट के बाद 15 अगस्त को रामसिंह ने अंग्रेजी सेना को खदेड़कर दुर्ग पर अपना झण्डा लहरा दिया.
इसके बाद रामसिंह ने सब ओर ढोल पिटवाकर मुनादी करवाई कि नूरपूर रियासत से अंग्रेजी राज्य समाप्त हो गया है. रियासत का राजा जसवन्त सिंह है और मैं उनका वजीर. इस घोषणा से पहाड़ी राजाओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी. वे सब भी रामसिंह के झण्डे के नीचे आने लगे, लेकिन अंग्रेजों ने और रसद लेकर फिर से दुर्ग पर धावा बोल दिया. शस्त्रास्त्र के अभाव में रामसिंह को दुर्ग छोड़ना पड़ा, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. वे पंजाब के रास्ते गुजरात गये और रसूल के कमाण्डर से 1,000 सिख सैनिक और रसद लेकर लौटे. इनकी सहायता से उन्होंने फिर से दुर्ग पर अधिकार कर लिया. अंग्रेजी सेना पठानकोट भाग गयी. यह सुनकर जसवां, दातारपुर, कांगड़ा तथा ऊना के शासकों ने भी स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया, पर अंग्रेज भी कम नहीं थे, उन्होंने कोलकाता से कुमुक बुलाकर फिर हमला किया. रामसिंह पठानिया को एक बार फिर दुर्ग छोड़ना पड़ा. उन्होंने राजा शेरसिंह के 500 वीर सैनिकों की सहायता से ‘डल्ले की धार’ पर मोर्चा बांधा. अंग्रेजों ने ‘कुमणी दे बैल’ में डेरा डाल दिया.
दोनों दलों में मुकेसर और मरीकोट के जंगलों में भीषण युद्ध हुआ. रामसिंह पठानिया की ‘चण्डी’ नामक तलवार 25 सेर वजन की थी. उसे लेकर वे जिधर घूमते, उधर ही अंग्रेजों का सफाया हो जाता. भीषण युद्ध का समाचार कोलकाता पहुंचा, तो ब्रिगेडियर व्हीलर के नेतृत्व में नयी सेना आ गयी. अब रामसिंह चारों ओर से घिर गये. ब्रिटिश रानी विक्टोरिया का भतीजा जॉन पील पुरस्कार पाने के लिए स्वयं ही रामसिंह को पकड़ने बढ़ा, पर चण्डी के एक वार से वह धराशायी हो गया. अब कई अंग्रेजों ने मिलकर षड्यन्त्रपूर्वक घायल वीर रामसिंह को पकड़ लिया. उन पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाकर आजीवन कारावास के लिए पहले सिंगापुर और फिर रंगून भेज दिया गया. रंगून की जेल में ही मातृभूमि को याद करते हुए उन्होंने 17 अगस्त, 1849 को अपने प्राण त्याग दिये.
‘डल्ले की धार’ पर लगा शिलालेख आज भी उस वीर की याद दिलाता है. नूरपुर के जनमानस में इनकी वीरगाथा ‘रामसिंह पठानिया की वार’ के नाम से गायी जाती है.
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