Tuesday, August 11, 2015

प्राकृतिक संसाधन समाजरूपी ईश्वर के हैं, हम तो केवल उसके ट्रस्टी हैं – बजरंगलाल जी गुप्त

जरात (विसंकें). चिल्ड्रन्स यूनिवर्सिटी एवं भारतीय विचार मंच, गुजरात द्वारा दिनांक 9 अगस्त, रविवार को गांधीनगर मे “एकात्म मानवदर्शन : सामाजिक, शैक्षिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया गया. परिसंवाद का उद्घाटन करते हुए गुजरात के राज्यपाल ओपी कोहली जी ने कहा कि समस्त जीवन का उदगम एक से ही है, जो कुछ है वह ब्रह्म है. सर्वे भवन्तु सुखिनः, वसुधैव कुटुम्बकं, सबमें एक ही तत्व विद्यमान है. भूमि हमारी माता है, अतः हम सब आपस में बंधु हैं. यही वह सूत्र है, जिस पर दीनदयालजी का भवन खड़ा है और यदि यह हमारे आचरण, अनुभूति, व्यवहार एवं सोच में उतर जाए तो समाज में व्याप्त सभी विषमताएं समाप्त हो जाएंगी. उन्होंने कहा कि दीनदयाल जी का चिंतन आज के युग के अनुरूप है. दीनदयालजी के अनुसार व्यवस्था उपर से थोपी हुई, नहीं बल्कि भीतर से पैदा होनी चाहिए. नीति क्या है वह है धर्म और धर्म का मतलब है कर्तव्य.
एकात्म मानवदर्शन आर्थिक परिप्रेक्ष्य
एकात्म मानवदर्शन आर्थिक परिप्रेक्ष्य विषय पर बोलते हुए अर्थशास्त्री व उत्तर क्षेत्र संघचालक बजरंगलाल जी गुप्त ने कहा कि वर्ष 1947 से 2015 तक हमारी अर्थरचना अधिकाधिक विदेशी रही है, स्वेदेशी नहीं है अतः हम परावलंबी हैं. पिछले दिनों जनगणना के आंकड़े प्रकाशित Gujarat (2)हुए, जिन्हें देखने से ध्यान में आता है कि आय में न्यूनतम और अधिकतम के बीच बहुत बड़ा अंतर है. दीनदयाल जी के अनुसार न तो हमें भारत को पुराने जमाने की प्रतिछाया बनाना है, न ही रूस अमेरिका की प्रतिकृति. हमें अपने देश की व्यवस्था के आधार पर अपनी आर्थिक नीति अपनानी है. देश में रहने वालों की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति यानि भोजन, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा इन छह आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए. भूटान ने विश्व के समक्ष Gross National Happiness (GNH) का एक सुन्दर उदाहरण रखा है. हमें केवल GDP का विचार न करते हुए मूल्यांकन पद्धति को बदलना होगा.
उन्होंने कहा कि हमारी आर्थिक व्यवस्था अर्थायाम होनी चाहिए, यानि न अर्थ का अभाव  हो, न अर्थ का प्रभाव हो. अर्थ के उत्पादन, वितरण, उपभोग में सामंजस्य हो. संयमित, सीमित, सदाचारी जीवनशैली अपनानी पड़ेगी. हमें अर्थ विकृति से अर्थ संस्कृति की ओर जाना होगा. हमें जितनी आवश्यकता है, उतना ही प्रकृति से लेना है, प्रकृति का शोषण नहीं होना चाहिए. हम यह भूल गए कि प्राकृतिक संसाधन समाजरूपी ईश्वर का है, हम तो केवल उसके ट्रस्टी हैं. आज मनुष्य ..मनुष्य न रहकर संख्या (Numbers) बन गया है. मनुष्य की गरिमा नहीं रही है. Technology को हमें देशानुकूल, युगानुकूल बनाकर ग्रहण करना होगा. एकात्म मानव दर्शन का बार बार स्मरण, विचार, चिंतन करने से यह नए प्रकार से दृष्टी देने वाला लगेगा.
उन्होंने कहा कि “अतीत का गौरव, वर्तमान का यथार्थ का आंकलन कर भविष्य की महत्वकांक्षा को साथ ले, चित्ती के प्रकाश में निराश हुए बिना नवरचना का प्रयास करते रहना ही एकात्म मानव दर्शन है.”
Gujarat (3)एकात्म मानवदर्शन  सामाजिक परिप्रेक्ष्य
परिसंवाद  मे एकात्म मानवदर्शन  सामाजिक परिप्रेक्ष्य विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए डॉ. महेश चन्द्र जी ( अध्यक्ष, दीनदयाल शोध संस्थान) ने कहा कि इतिहास में एक ऐसा दौर आया जब यूरोपियन देशों का शासन एशिया/ अफ्रीका के देशों में आया. तब पश्चिम को ही विश्व समझा गया और उस विचारधारा में मानव एक व्यक्ति है. समाज क्या है? तो समाज कुछ नहीं है. उनके अनुसार समाज एक स्वाभाविक ईकाई नहीं है, कृत्रिम ईकाई है. परिणाम क्या आया भौतिकवाद बढ़ा व्यक्ति की आजादी उपभोग की आजादी बन गई. भारतीय मनीषा में समाज यानि सम+अज सम्यक् रूप से उत्पन्न हुइ ईकाई है. समाज की जरुरत के अनुसार ज्ञान, सुरक्षा, व्यापार व अन्य कार्यो के लिये वर्ण व्यवस्था कर प्रयोग किया गया. कालान्तर में इस व्यवस्था में खामियों  के कारण जातिवाद पैदा हुआ. जिसे पश्चिम शिक्षण में बताया गया कि भारत का सबसे बड़ा दोष वर्णव्यवस्था है. वास्तव में हमारी व्यवस्था के कारण बेरोजगारी जैसा शब्द हमारे यहां था ही नहीं. परंपरागत काम चलता आता था, जैसे परंपरा से निष्णात बना है सुनार, लुहार, कृषक आदि. स्वर्ण व अवर्ण जाति जैसे शब्द आज़ादी के बाद पैदा हुए. कुल, वंश, जाति आदि संस्थाएं भारत की चित्ती में हैं. हमें पश्चिम से निजात पानी होगी. जो स्वदेशी है उसे युगानुकूल बनाकर, जो विदेशी है उसे स्वदेशानुकूल बनाकर ग्रहण करना चाहिए.
एकात्म मानवदर्शन के शैक्षिक परिप्रेक्ष्य
एकात्म मानवदर्शन के शैक्षिक परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए वासुदेवजी प्रजापति (सदस्य, पुनरुत्थान विद्यापीठ) ने कहा कि समग्रता की दृष्टी एवं मौलिक चिंतन दीनदयालजी की विशेषता थी. प्रत्येक राष्ट्र का एक मूल स्वभाव होता है, जिसे चित्ती कहते हैं और राष्ट्र की अनिष्टों से रक्षा करने वाली शक्ति (क्षमता) को विराट कहा जाता है. वैदिक काल में इस देश का पुरुष कहता था – मैं देवपुत्र हूं, क्योंकि देश का विराट Gujarat (4)जागृत था. मध्य काल में इस देश का पुरुष स्वयं को पापी कहने लगा, क्योंकि देश का विराट सुप्त था. हमारी शिक्षा व्यवस्था चित्ती और विराट को पुष्ट करने वाली होनी चाहिए.
आज की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से यांत्रिक है. व्यक्ति को Expert बनाना चाहती है. जिसके लिए विभिन्न यंत्रों का उपयोग हो रहा है. मूल बात यह है कि व्यक्ति यंत्र नहीं जीवमान ईकाई है. उसका पंचकोषीय विकास यानि शरीर, प्राण, बुद्धि, मन एवं आत्मा का विकास होना चाहिए. आज की विकास की अवधारणा एक रेखीय है, यानि साधनों को बढ़ाना है. हमारे यहां विकास चक्रीय है यानि जिस बिंदु से जीवन प्रारंभ होता है, वहीं आकर चक्र पूरा होता है. व्यक्ति जन्म से ही कुछ क्षमता लेकर जन्मा है, क्षमता की पूर्ण अभिव्यक्ति ही हमारे यहां विकास है.
एक दिवसीय परिसंवाद मे चिल्ड्रन्स यूनिवर्सिटी, गुजरात के कार्यकारी कुलपति श्री दिव्यांशुभाई दवे ने मंचस्थ महानुभवों का स्वागत किया गया तथा प्रोफेसर डॉ. अशोकभाई प्रजापति द्वारा आभार व्यक्त किया गया.

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