नई दिल्ली (इंविसंके). राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी जी ने कहा कि जिस साहित्य में राष्ट्रीयता का भाव नहीं, वह किसी काम का नहीं होता. साहित्य समाज का दर्पण होता है. अगर आप किसी समाज को देखना और उसके बारे में समझना चाहते हैं तो आप उस समाज का साहित्य देखें. आज का दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज ही के दिन स्वातंत्रता सेनानी वीर सावरकर का निधन भी हुआ था और आज महर्षि वाल्मीकि की जयन्ती भी है. वीर सावरकर को याद करते हुए कहा कि स्वतंत्रता के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी वो भी परिवार सहित और एक जन्म में दो आजीवन कारावास की सजा. वर्ष 1966 में जब उनका निधन हुआ था, तो वे देश की हालत से संतुष्ट नहीं थे. इसलिए जब हम उनकी जीवन गाथा को पढ़ेंगे तो हमें यह मालूम होगा कि मृत्यु उनको आई नहीं थी, मृत्यु को उन्होंने खुद बुलाया था. इसका एक कारण यह था कि देश की स्वतंत्रता के 18-19 वर्ष बीत जाने के बाद भी वो नहीं हुआ, जिसके लिए लोगों ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी.
राज्यपाल अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की स्वर्ण-जयंती के शुभारम्भ अवसर पर आयोजित नींव के पत्थर रूप कार्यकर्ताओं के सम्मान समारोह में संबोधित कर रहे थे. समारोह सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केंद्र (सीसीआरटी), सेक्टर-7 द्वारका, नई दिल्ली में संपन्न हुआ. कार्यक्रम का श्री गणेश मंत्रोच्चार और मुख्य अतिथि हरियाणा एवं पंजाब के महामहिम राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी द्वारा दीप प्रज्वलन के साथ हुआ. उन्होंने कहा कि भारत का प्राचीन गौरव और अस्मिता देश की पहचान है. उस गौरव और अस्मिता को समाप्त करने की एक हजार वर्षों तक कोशिशें होती रहीं. देश स्वतंत्र होने के बाद हमारे देश के कृषक, हमारे देश के मनीषि देश के प्रति भक्तिनिष्ठ थे. वे चाहते थे कि
देश की अस्मिता और गौरव को कैसे बचाया जाए? इसी उद्देश्य को लेकर 27 अक्टूबर, 1966 में साहित्य परिषद् का गठन हुआ. विचार ही व्यक्ति को ठीक करता है. ये विचार आता कहां से है? विचार साहित्य से आता है. साहित्य देश की अस्मिता को पीढ़ी बदलते वक्त एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को हस्तांतरित करता है. उन्होंने कहा कि आदमी के शरीर के पीछे मन है, मन के पीछे बुद्धि है, बुद्धि के पीछे ईश्वर की शक्ति है. जिसे हम आत्मा कहते हैं. इसलिए आत्मा और बुद्धि को अगर कुशाग्र और प्रखर बनाना है तो साहित्य को अपनाना पड़ेगा. सम्पूर्ण व्यक्तित्व को बनाने के लिए बुद्धि की विशालता चाहिए और बुद्धि की विशालता के लिए अन्तःकरण की विशालता चाहिए जो साहित्य से ही आती है.
अ.भा.सा.प के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. त्रिभुवननाथ शुक्ल जी कहा कि अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की स्थापना के 50 वर्ष पूर्ण हुए हैं. इस अवधि में परिषद् ने अपनी अलग पहचान ही नहीं बनायी, अपितु साहित्य जगत में नए मापदंड भी स्थापित किए हैं. परिषद् को बीज से सुदृढ़ विशाल वटवृक्ष का रूप देने में नींव के आधारभूत कार्यकर्ताओं का अतुलनीय योगदान रहा है. इस अवसर पर ऐसे समर्पित, तेजस्वी, निष्ठावान कार्यकर्ताओं का सम्मान करना हम सबका दायित्व है.
राष्ट्रीय महामंत्री ऋषि कुमार जी ने परिषद् के 50 वर्ष की यात्रा को सफल और सार्थक बताते हुए कहा कि साहित्य परिषद् साहित्य को सनातन तत्व मानकर चलती है. इसलिए परिषद की जिम्मेदारी बनती है कि पाखंडवाद के राहू-केतु ने साहित्य को जिस तरह से ग्रसित कर रखा है, उससे साहित्य को उबारना है. साहित्य वह है जो लोक स्वर बनने की ताकत रखता है. एक साहित्य हमें ज्ञान के पथ से अनुभव के पथ पर पहुंचता है तो एक साहित्य हमें अनुभव के पथ से ज्ञान के पथ पर पहुंचाता है. साहित्य वह है, जिसमें स्वदेश के प्रति आस्था का भाव है.
राष्ट्रीय मंत्री रवींद्र शुक्ल जी ने कहा कि आज साहित्य की गंगा विषैले जीवाणुओं से पंकिल हो गई है. ‘वाद’ के ‘कफ’ से विमर्श के ‘वात’ से और वामपंथियों के ‘पित’ से साहित्य पुरुष का कंठ अवरुद्ध हो गया है. अब यह साहित्य पुरुष दोनों भुजाएं उठाकर भारतीय विद्या-परंपरा के ‘आस्था तत्व’ गर्भित साहित्य की पुनः वापिसी की गुहार लगा रहा है. ऐसा साहित्य रचा जाए, जो भारत की मूलात्मा से जुड़कर विश्व मंगल का संदेश दे सके, जो दिलों को तोड़ने वाला नहीं, अपितु जोड़ने वाला हो, जो संस्कारों को नष्ट करने वाला न होकर उन्हें प्रशस्त करने वाला हो.
सम्मान समारोह में परिषद् के तरफ से बलवीर सिंह, डॉ. देवेन्द्र दीपक, जीत सिंह जीत, डॉ. कन्हैया सिंह, डॉ. भुनेश्वर गुरूमैता, डॉ. ज्वाला प्रसाद कौशिक और डॉ. देवेन्द्रचन्द्र दास को शॉल, श्रीफल और स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया गया. इनके अलावा डॉ. दयाकृष्ण विजय, डॉ. मथुरेश नन्दन कुलश्रेष्ठ, डॉ. रमानाथ त्रिपाठी, डॉ. योगेन्द्र गोस्वामी और सूर्यकृष्ण जी को सम्मानित किया जाना था. परंतु, इनमें से कुछ लेखक अपनी व्यस्तता और स्वास्थ्य के कारण नहीं पहुंच सके.