नई दिल्ली (इंविसंके). माननीय बजरंगलाल जी गुप्त ने दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद विषय पर कहा कि जब दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद को पढ़ते हैं और तो आज के वातावरण में वित्त सलाहकारों की वित्तीय नीतियों को देखते हैं तो कनफ्यूजन होता है. आज जिस प्रकार की इकोनोमिक डायरेक्शन चल रही है. उसे देखते हुये लगता है कि कौन हैं दीनदयाल, ऐसा समझ में आना और समझाना दोनों कठिन है. डॉ बजरंग लाल गुप्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दिल्ली प्रांत संपर्क विभाग द्वारा 17 जनवरी को आयोजित वित्त सलाहकार विचार गोष्ठी में संबोधित कर रहे थे.
उन्होंने कहा कि दीनदयाल जी को समझने के लिये दो बातें आवश्यक हैं, पहली बात भारतीय मन और मानस चाहिये. इतने समय तक एक खास परिस्थिति, वातावरण में रहने के कारण धीरे-धीरे भारतीय मन और मानस कुंद पड़ गया है, इसलिये अगर दीनदयाल को समझना है तो इस भारतीय मन और मानस को फिर से जागृत करना पड़ेगा. भारतीय मन और मानस के साथ दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद को वैस्टर्न टर्मनोलॉजी से नहीं समझा जा सकता. आपने और मैंने जो पढ़ाई की है, एक ही प्रकार में की है. मैंने भी अर्थशास्त्र पढ़ाया है, कौन सी टर्मनोलोजी में पढ़ाता रहा, वैस्टर्न टर्मनोलोजी में पढ़ाता रहा. आज जितने इकोनोमिक्स पॉलिसी के डायरेक्टर हैं, सब वैस्टर्न टर्मनोलोजी के हैं. दीनदयाल जी तो अपेक्षित ही नहीं रहते. आप दीनदयाल जी का आंकलन उनका मूल्यांकन कौन सी टर्मनोलोजी पर करना चाहते हैं. अगर वैस्टर्न टर्मनोलोजी से करेंगे तो दीनदयाल जी फेल हैं, दीनदयाल समझ में ही नहीं आयेंगे, दीनदयाल रिलेवेंट ही नहीं हैं. इसलिये दीनदयाल जी को समझना चाहते हो तो भारतीय टर्म एंड टर्मनोलोजी के अनुसार ही उनको समझ सकते हैं.
मैंने यह इसलिये आपके सामने निवेदन किया है कि कठिन विषय को समझने के लिये दोनों दृष्टियों में हम धरातल पर दीनदयाल को पढ़ने का प्रयत्न करें, तो शायद दीनदयाल वर्तमान परिस्थिति में भी रिलेवेंट लगेंगे. दीनदयाल जी ने जो विचार रखा था, उसे लगभग पचास वर्ष हो गये. यह उनके विचार का स्वर्ण जयंती वर्ष है और अगले वर्ष दीनदयाल जी का जन्मशताब्दी वर्ष आने वाला है. तो उनके जीवन का शतायु वर्ष और उनके चिंतन का स्वर्ण जयंती वर्ष देश में होने वाले हैं. इसलिये दीनदयाल जी के चिंतन के सम्बन्ध में देश में चिंतन, मंथन होना आवश्यक है.
दीनदयाल जी को यह विचार क्यों रखना पड़ा, इसका भी कारण है. सन् 1965 की कल्पना करिये जब दीनदयाल जी ने यह विषय रखा, उस समय भारत का नेतृत्व पश्चिमी विचारों से आवश्यकता से अधिक प्रभावित था. बल्कि पश्चिमी विचारों से आतंकित था. दीनदयाल जी ने उस समय पर हस्तक्षेप किया, और जब भारत के नेतृत्व पर पश्चिमी विचारों का इतना जबरदस्त प्रभाव हो, तो फिर शैक्षणिक संस्थानों, या शोध संस्थानों, नीति निर्माण संस्थान, सभी में चिंतन और नीति निर्माण का आधार वैस्टर्न विचार ही थे.
दीनदयाल जी ने कहा कि इससे भारत का भला नहीं होगा. स्वतंत्रता हासिल करने के लिये इतनी बड़ी जद्दोजहद चल रही थी, वह स्व को खोजने के लिये थी. अगर पश्चिमी विचारों पर हम चलेंगे तो जो स्वतन्त्रता हासिल की है उसका कोई औचित्य नहीं रह जायेगा.
एक दूसरा भी बैकग्राउंड था, 1965 और उसके पहले के घटनाक्रम को याद करें. दीनदयाल जी ने देखा कि सत्ता प्राप्ति के लिये विचारधारा विहीन गठजोड़ करो, राजनीति में अलायंस हो रहे थे, बगैर विचार के हो रहे थे, कोई वैचारिक तालमेल नहीं था, केवल सत्ता प्राप्ति के लिये हो रहा था, कोई वैचारिक समानता भी ठीक नहीं बैठती थी. केवल सत्ता प्राप्ति के लिये किया जा रहा था, विचारधारा विहीन गठजोड़. दीनदयाल जी ने कहा था कि केवल सत्ता प्राप्ति के लिये विचारधारा विहीन गठजोड़ के आधार पर सत्ता चलेगी तो देश या समाज का क्या भला होने वाला है. देश के भीतर कि केवल सत्ता द्वारा ही समाज परिवर्तन का सर्वाधिक काम किया जा सकता है, दीनदयाल जी ने कहा यह गलतफहमी है. समाज के परिवर्तन का मुख्य उपकरण, सर्वाधिक महत्व का उपकरण सत्ता नहीं हो सकता.
मेरा सौभाग्य है कि दीनदयाल जी को प्रत्यक्ष सुना, मैं जब संघ का शिक्षण लेने के लिये उदयपुर द्वितीय वर्ष में गया था, दीनदयाल जी बौद्धिक देने के लिये आये थे और उन्होंने एकात्ममानववाद को समझाया. एक प्रश्न पैदा होता है कि दीनदयाल जी ने पश्चिमी विचारों को क्यों नकारा, पश्चिमी प्रणाली को क्यों नकारा. अपने अध्ययन, अनुभव के आधार पर कहा कि जितने भी पश्चिमी विचार, संस्थान, प्रणाली है, उनमें कुछ कमियां, खामियां हैं.
दीनदयाल जी ने कहा कि सम्पूर्ण पश्चिमी जगत के विचार और चिंतन रिएक्क्षनरी हैं, प्रतिक्रियात्मक हैं. तो क्या भारत में प्रतिक्रियात्मक विचार को स्वीकार करना चाहिये. दूसरा यह एकांगी है, यह खंडित दृष्टिकोण हैं, सम्पूर्ण विचार नहीं करते टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करते हैं तो एकांगी विचार भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. दीनदयाल जी ने कहा कि सम्पूर्ण जगत का विचार, सिस्टम और सारे विचार, सिद्धान्त भौतिकतावादी है, भोगवादी है या जड़वादी है, इनमें केवल भौतिक तथ्यों का विचार किया. अध्यात्म का विचार ही नहीं किया.
दो भागों में अपनी बात थोड़ा-थोड़ा कहने का प्रयत्न करूंगा. जब कोई नया चिंतन दिया जाता है, नई फिलोसफी दी जाती है, कोई नया सिद्धान्त दिया जाता है तो पहले कोई उसका दार्शनिक आधार होता है. दार्शनिक आधार के बिना कोई नया कांसेप्ट या फ्रेमवर्क नहीं दिया जा सकता, कोई वैचारिक सैद्धान्तिक अभिख्यान नहीं दिया जा सकता. दीनदयाल जी ने जो वैचारिक सैद्धान्तिक अभिख्यान देने का प्रयत्न किया है, उसके लिये एक थिआटिकल बैकग्राउंड दिया है, दार्शनिक पृष्ठभूमि दी है. भारतीय संस्कृति में भारतीय मनीषी परम्परा जो कहती रही, उसी को प्रस्तुत किया.
पांच बातें मुख्य रूप से दीनदयाल जी ने कहीं, पहली बात वर्ल्ड व्यू क्या होगा, विश्व दृष्टि क्या होगी, सृष्टि को कैसे देखते हो, क्या है सृष्टि, यह समाज क्या है, उसको देखने का तुम्हारा दृष्टिकोण क्या है. जिस विश्व दृष्टि के आधार पर सम्पूर्ण राष्ट्र और सिद्धान्त बने हैं, उसे बोलते हैं खण्डित यांत्रिक विश्व दृष्टि. यह मानकर चलते हैं कि सृष्टि मशीन से चलेगी, और मशीन कल-पुर्जों से मिलकर बनती है. मशीन के किसी पार्ट में खराबी आ गयी तो कोई भी मैकेनिक ठोक-पीट कर उस पार्ट को बाहर निकाल देगा. कोई संवेदना नहीं है, कोई कष्ट नहीं है, काई परेशानी नहीं है, उसके साथ कोई आत्मीयता का भाव नहीं है, दूसरा नया पार्ट उस जगह पर लगा देता है. प्रकति के साथ ऐसा व्यवहार उचित नहीं है. दुनिया के बड़े-बड़े सम्पन्न कहे जाने वाले देश दुनिया के विकासशील देशों का शोषण करते हैं, उन्होंने सम्पूर्ण सृष्टि को संसार को माना ही मैकेनिटी है। किसी का भी यूज किया जा सकता है, जब तक उपयोग होगा उपयोग करेंगे और उपयोग होने लायक नहीं होगा तो उसको निकाल बाहर कर देंगे. इस दृष्टि के आधार पर यह दुनिया और देश नहीं चल सकता, दृष्टि बदलनी पड़ेगी.
दूसरी बात दीनदयाल जी ने कही कि सृष्टि को समझने के लिये समझें कि मनुष्य क्या है, वित्त का मैनेजमेंट करो, वित्त के बारे में सलाह देना चाहते हो या आर्थिक समृधि लाना चाहते हो, उसके लिये कुछ करना चाहते हो, उसके लिये बहुत सारी इकोनोमिक पालिसी बनाना चाहते हो, राजनीतिक डायरेक्शन देना चाहते हो, उसके लिये सिस्टम खड़ा करना चाहते हो, मनुष्य के लिये खड़ा करना चाहते हो क्या, मनुष्य को समझा है क्या कि मनुष्य है. वर्तमान में मनुष्य को समझने में ही भूल है. पॉलिटिकल साइंस वाले कहते हैं मनुष्य पॉलिटिकल एनिमल है, सोशियोलॉजी वाले कहते हैं कि मनुष्य सोशल एनिमल है, बायोलोजी वाले मनुष्य को बंडल ऑफ़ थाउजेंड ऑफ़ थाउजेंड ऑफ़ सैल्स कहते हैं. अर्थशास्त्र में मनुष्य के लिये मनुष्य एक इकोनोमिक मैन है, मनुष्य को आर्थिक मनुष्य कहा है. उपभोक्ता के नाते बाजार जाता हूं तो मेरा इकोनोमिक मैन के नाते आधार क्या होगा, कम दाम खर्च किया जाये और ज्यादा ले लिया जाये. मैं श्रमिक हूं, लेबर हूं, तो लेबर के नाते इकोनोमिक मैन के नाते से मेरा व्यवहार क्या होगा, कम से कम काम किया जाये और मालिक से ज्यादा से ज्यादा पैसा ले लिया जाये.
वास्तव में मनुष्य चार चीजों से मिलकर बनता है, शरीर, मन बुद्धि और आत्मा, इसको एकात्म कहा है, अगर मनुष्य को सुख देना चाहते हैं तो इन चारों की आवश्यकता होती है. शरीर की आवश्यकतायें भी पूरी होनी चाहिये, मन अशांत है और शरीर की आवश्यकतायें पूरी हो रही हैं तो भी टेंशन होगी, डिपरेशन होगा, मानसिक शांति नहीं है, मानसिक आनन्द नहीं है, तो सुख कैसे होगा.
तीसरी बात कही कि विविधता में एकता होनी चाहिये. आपसी भाईचारे को लेकर काफी चर्चाएं हो रही हैं, तो फिर संघर्ष क्यों हो रहा है. इससे कोई अछूता नहीं है. संसार ने जिस प्रकार के दर्शन को स्वीकार किया वह ‘मेरा ही विचार ठीक है’ और इसे मानो, जैसे-तैसे मानो, लोभ-लालच से मान लो, या लोभ-लालच से नहीं माने तो तलवार की धार पर मानना होगा. संसार में विविधता रहने वाली है, और इसी में एकता के सूत्र खोजने का प्रयत्न करना. इसलिये दीनदयाल जी ने कहा कि विविधता में एकता को भी स्वीकार करना चाहिये.
दीनदयाल जी ने अगली बात बहुत महत्व की कही है, व्यश्ठि और समश्ठि के बीच क्या अंतर है? माइक्रो-मैक्रो रिलेशनशिप क्या है? सबसे बड़ी उलझन इसी को लेकर है. हम सब लोग कहीं न कहीं इकोनोमिक से कामर्स और अकाउंटेंसी से जुड़े लोग हैं, न माइक्रो समझ में आ रहा है, न मैक्रो और माइक्रो-मैक्रो का रिलेशनशिप तो कतई नहीं समझ में आ रहा है. इस संपूर्ण चिंतन को दीनदयाल जी ने नकारा.
भारतीय चिंतन में दीनदयाल जी ने जैसे सर्प को कुंडली मारे देखते हैं तो सर्प के कई सर्कल होते हैं, एक छोटा सर्कल दूसरा उससे बड़ा, तीसरा और बड़ा सर्कल, परन्तु सबका एक दूसरे सर्कल से एक नाता रिश्ता है, अगर उसके पूछ वाले सर्कल को पिन चुभाआगे तो सम्पूर्ण सर्प खड़ा हो जायेगा. संवेदनशीलता है, आत्मीयता है, परस्पर का सम्बन्ध है, जिस माइक्रो-मैक्रो रिलेशनशिप को भारत ने स्वीकार किया है, दीनदयाल जी ने ऐसा आर्गेनिक रिलेशनशिप वाला एक छोटा सा फिलोसिफिकल बैकग्राउंड भारतीय चिंतन के आधार पर दिया.
गुप्त जी ने कहा कि दीनदयाल जी जनसंघ के संगठन मंत्री थे. वो मेरी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विशुद्ध काम करने वाले नहीं थे. संघ के प्रचारक थे जो जनसंघ नाम की राजनैतिक पार्टी में काम करते थे. उनका मानना था कि राष्ट्र के लिये राजनीति होनी चाहिये, राजनीति के लिये राष्ट्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये. ऐसी राजनीति नहीं चाहिये जो राष्ट्र और राष्ट्रीयता को क्षीण करे, राष्ट्र और उसकी मर्यादा, राष्ट्र की जीवनधारा, जीवन मूल्य कमजोर हो जायें, ऐसी अवांछनीय राजनीति नहीं चाहिये, ऐसी सत्ता नहीं चाहिये.
दीनदयाल जी कहते थे कि लोकतंत्र की सफलता के लिये दल अच्छा चाहिये, अच्छी पार्टी चाहिये. पार्टी बहुत अच्छी है और मेंबर खराब हैं ऐसी स्थिति भी नहीं चाहिये. दूसरा पार्टी भी अच्छी चाहिये और उम्मीदवार भी अच्छा चाहिये. उम्मीदवार अच्छा और पार्टी गलत हो तो भी काम नहीं चलेगा, क्योंकि लोकतंत्र में काम तो पार्टी की नीतियों के आधार पर करना होता है. इसलिये दल भी अच्छा हो, उम्मीदवार भी अच्छा हो, और तीसरी बात कही थी कि मतदाता भी अच्छा हो.
दीनदयाल जी ने स्वदेशी, स्वावलम्बी, विकेन्द्रित अर्थतंत्र पर जोर दिया है, तीनों ही आपस में एक दूस रे से संबिंधत हैं. भारत में अर्थतंत्र स्वावलम्बी बनाना है. दीनदयाल जी केंद्रीकृत अर्थतंत्र के पक्ष में नहीं थे. टैक्नोलोजी के बारे में दीनदयाल जी ने शब्द प्रयोग किये, ‘युगानुकूल और देशानुकूल’। उन्होंने कहा कि समय के अनुसार पुरानी नीतियों, तकनीकों में सुधार करो, और दूसरे देश का बना है, इसलिये आंख बंद करके ठोकर मत मारो, जो देशानुकूल हो उसे स्वीकार करो. अपने देश की परिस्थितियों के हिसाब से सामंजस्य बिठाकर चयन करो. जिस प्रकार चिकित्सक ट्रांसप्लांट करता है तो आर्गन का ट्रांसप्लांट करने से पहले मरीज का टिष्यू मैचिंग करता है. अगर टिष्यू मैचिंग नहीं किया और बाहर का आर्गन बगैर मैचिंग के ट्रांसप्लांट कर दिया तो राम नाम सत्य हो जाएगा.
दीनदयाल जी विकास के मॉडल के लिये देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति की गारंटी पर जोर देते थे. दुनिया का कोई देश दावा नहीं कर सकता कि मैं अपने देश में रहने वाले सब लोगों की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति ग्रोथ मॉडल से कर रहा हूं. देश में विकास का ऐसा मॉडल विकसित होना चाहिये जो भोजन, कपड़ा, मकान, रक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करे. अगर ऐसा नहीं है तो बेकार है.
अर्थ व्यवस्था के बेहतर स्वास्थ्य के लिये दो आयामों का संतुलित रहना आवश्यक है, न अर्थ का अभाव रहना चाहिये और न उसका प्रभाव रहना चाहिये. अर्थ अभाव भी झगड़ा करवाता है और प्रभाव भी पचास तरह के दोष पैदा करता
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