गुजरात (विसंके). माधव स्मृति न्यास, गुजरात द्वारा प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी श्री गुरूजी व्याख्यान माला का आयोजन किया गया. दो दिन की व्याख्यान माला में प्रथम दिन का विषय रहा प. पू. डॉक्टर साहब विद्यार्थी काल से संघ स्थापना तक, तथा दूसरे दिन का विषय संघ स्थापना से 1940 तक.
प्रथम दिन के वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ कृष्णगोपाल जी तथा दूसरे दिन वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पश्चिम क्षेत्र के क्षेत्र कार्यवाह सुनील भाई मेहता रहे.
अपने उद्बोधन में डॉ कृष्णगोपाल जी ने कहा कि डॉ. हेडगेवार का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था. बहुत छोटी आयु में ही उन्होंने संकल्प कर लिया था कि मेरा जीवन समाज के लिये है. कोलकाता में विद्यार्थी काल में वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे. Brithish Archives में इसका उल्लेख है.
1916 से 1925 तक का समय उनके लिये महत्वपूर्ण रहा. उन दिनों डॉ साहब कांग्रेस में सक्रीय रहे. देश के विषय में सोचते समय डॉ. साहब हमेशा सोचते थे. देश कैसा है ? इसका भूतकाल कैसा था ? उन्ही दिनों खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने का कांग्रेस ने निर्णय लिया।, तब डॉ. साहब ने सुझाव दिया कि हमें खिलाफत आंदोलन का समर्थन करना चाहिये, लेकिन मुस्लिमों को गो-हत्या बंदी की बात माननी पड़ेगी. लेकिन कांग्रेस ने उनकी यह बात नहीं मानी. उन्होंने देश स्थिति पर विचार किया तो चार मौलिक आर्य सत्य उनके ध्यान में आये.
1. वर्तमान हिन्दू समाज की स्थिति मन को वेदना देने वाली है.
2. यह स्थिति अकारण नहीं है, इसके निश्चित कारण हैं.
3. इस स्थिति को सुधारा जा सकता है.
4. यह कार्य हिन्दू समाज को स्वयं ही करना होगा.
उन्होंने मंथन किया कि दुनिया के अनेक देश मिट गए, परन्तु भारत 1200 वर्षो के संघर्ष के बाद भी अस्तित्व में हैं. यह देश इतनी अधिक मेघा शक्ति रखने के बाद भी क्यों पुनः पुनः पराधीन हो जाता हैं. यह सब चिंतन डॉ. साहब समाज के बीच में रहकर सभी गतिविधियों के साथ रहकर करते थे, एकांत में नहीं. अंततः उन्हें ध्यान में आया कि बीमारी का इलाज कुछेक क्रांतिकारी बलिदान देकर नहीं कर सकते. इसके लिये अनेक दुर्गुण होने के बावजूद ऐसे लोग चाहिए जो समाज को अपना मानकर चले. इस भूमि पर पलने बढ़ने वाला हर नागरिक हिंदुत्व के नाते एक है, मातृभूमि को माता माने यह विचार लोगो के मन में जगे यह चिंतन उन्होंने किया. डॉ. साहब ने ऐसे लोगों को जिनका मन, वाणी समान थे, साथ में लेने का संकल्प किया.
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए दूसरे दिन केउद्बोधन में सुनील भाई मेहता ने कहा कि डॉ साहब को ध्यान में आया कि वंदेमातरम के शब्द से पूरा समाज उठ खड़ा होता है, राष्ट्र का अंतर्मन हिन्दू हैं. अपने सहयोगी कार्यकर्ताओ के साथ बैठकर डॉ. साहब ने योजना बनाई, सामूहिक चिंतन, चर्चा आदि करने के बाद 1925 में विजयदशमी के दिन उन्होंने संघ के प्रारंभ करने की घोषणा की.
संघ का नाम, पदाधिकारी, कार्यालय आदि प्रारंभ में निश्चित नहीं था. तरुण व् बाल व्यायाम शाला में जाकर व्यायाम करे तथा रविवार को इतवारी मैंदान पर प्रातः 5.30 बजे एकत्रीकरण. उन दिनों स्वयंसेवक शब्द नहीं था, बल्कि सदस्य कहा जाता था. रविवार के दिन सैनिक अभ्यास यानि परेड होती थी. बाद में राजकीय वर्ग यानि आज का बौद्धिक वर्ग प्रारंभ हुआ. जिसमें देश की वर्तमान स्थिति पर चिंतन होता था.
कुछ समय के बाद व्यायाम शाला की जगह मैदान पर ही एकत्र होने का निर्णय लिया गया. संघ के प्रारम्भकाल में प्रार्थना, व्यायाम एवं दंड तीन कार्य होते थे. कुछ समय के बाद प्रथम पथसंचलन निकाला गया, जिसमें 30 स्वयंसेवकों ने भाग लिया. पथसंचलन के परिणामस्वरूप शाखा में संख्या में वृद्धि हुई व मैदान छोटा पड़ने लगा, अतः नया स्थान मोहिते बाड़ा तय किया गया.
प्रथम सार्वजनिक कार्य रामनवमी के दिन रामटेक मैदान में व्यवस्था संभालने का हुआ. जिसमे स्वयंसेवक पहली बार गणवेश में उपस्थित हुए. 26 अप्रैल-1926 के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा नामकरण हुआ. अगस्त 1927 में रक्षाबंधन पहला उत्सव मनाया गया, जिसमें स्वयंसेवको ने एक दूसरे को राखी बांध सम्पूर्ण हिन्दू समाज की सुरक्षा का संकल्प किया. संघ में प्रथम गुरु पूर्णिमा उत्सव जिसमें भगवा ध्वज को गुरु माना गया, उस कार्यक्रम में रुपए 86/- का समर्पण हुआ.
डॉ. साहब ने संघ के प्रारंभ काल से ही लोक संपर्क का गुण स्वयंसेवको में विकसित किया इसके लिए उन्होंने शाखा के बाद घर संपर्क की पद्धत्ति विकसित की. शाखा में संस्कार पड़े ऐसे कार्यक्रम तय किये गए. उन्ही दिनों डॉ. साहब के प्रयत्न से प्रथम प्रचारक बाबा साहब आप्टे निकले, उसके बाद दादाराव परमार्थ तथा यादवराव जोशी भी प्रचारक निकले. डॉ. साहब ने राष्ट्र कार्य में अपने शरीर को निचोड़ दिया था. स्वयंसेवको ने यह प्रत्यक्ष देखा और वे स्वयं भी निष्ठापूर्वक कार्य में लग गए. हिन्दू समाज का संरक्षण एवं सर्वांगीण उन्नति का भाव स्वयंसेवको के मन में उत्पन्न हुआ. 21 जून 1940 के संघ शिक्षावर्ग में अपने अंतिम बौद्धिक मैं डॉ. साहब ने कहा यह प्रतिज्ञा करो कि “जीवन में ऐसा समय कभी नहीं आना चाहिए कि कहना पड़े में संघ का स्वयंसेवक था
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